________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ६७ व्यवहार में अजीव शब्द का जब भी प्रयोग होता है, तब वह जीव के अस्तित्त्व को सिद्ध करता है।
"पदार्थ के संयोग, सम्बन्ध या समवाय सम्बन्ध या सामान्य का और विशिष्टता का ही निषेध कर सकते है, परंतु पदार्थ का सर्वथा निषेध नहीं कर
सकते हैं।"१०४
(१) जैसे 'राजा उद्यान में नहीं है'- यहाँ राजा और उद्यान के संयोग का
निषेध है। राजा का, या उद्यान का निषेध नहीं है। 'दूध में शक्कर नहीं है'- यहाँ दूध और शक्कर के समवाय-सम्बन्ध का निषेध होता है, दूध और शक्कर का निषेध नहीं। दूध और शक्कर
अन्यत्र तो हैं ही। 'मेरे पास पेपर नहीं आया' इस वाक्य में सामान्य अर्थ में निषेध में किया गया है। पेपर अन्यत्र विद्यमान है। 'मैं काला चश्मा नहीं पहनता हूँ'- इसमें चश्मे की विशिष्टता का निषेध है चश्मे का नहीं।
इस प्रकार "जब देह में आत्मा नहीं इस प्रकार कहते हैं, तब आत्मा का निषेध नहीं होता है, किन्तु देह और आत्मा के संयोग-संबंध का निषेध होता है।।१०५
उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- “संशय से आत्मा की सिद्धि स्पष्ट रूप से होती है।"१०६ तर्कशास्त्र का एक नियम है कि कोई वस्तु यहाँ है या नहीं, इस प्रकार का संशय होता है, तो उस वस्तु का कहीं न कहीं अस्तित्त्व होना ही चाहिए। जैसे पेड़ के तने को अंधकार में दूर से देखने पर उसमें मनुष्य का
१०४. संयोगः समवायश्च सामान्यं च विशिष्टता
निषिध्यते पदार्थानां त एव न तु सर्वथा ।।२८ || -मिथ्यात्वत्याग अधिकार-अध्यात्मसार -
उ. यशोविजयजी १०५. असओ नत्थि निसेहो, संजोगई पडिसेहओ सिद्धं
संजोगाई चउक्कंपि सिद्धमत्यंत्तरे निययं ।। - विशेषावश्यकभाष्य गाथा १५७४ १०६. सिद्धिः स्थाण्वादिवद् व्यक्ता संशयादेव चाष्मनः।
असौ खरविषाणा दौ व्यस्तार्थविषयः पुनः।।२६।। - मिथ्यात्वत्याग अधिकार-अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org