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________________ ६५/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री संशय होता है, किन्तु पास में आने पर पता चलता है कि यह मनुष्य नहीं पेड़ का तना है। मनुष्य का अस्तित्त्व कहीं न कहीं हो, तो ही तने में मनुष्य का आभास होता है; उसी प्रकार संसार में सर्प का सर्वथा अभाव हो तो रस्सी के टुकड़े में सर्प का भ्रम ही नहीं होगा, यानी संदेह से वस्तु की सिद्धि होती है। जीव का सर्वथा अभाव होने पर उसका संशय या भ्रम नहीं हो सकता। अतः आत्मा नहीं है, या है, इस प्रकार कहने से ही आत्मा के अस्तित्त्व की सिद्धि होती है। “सर्वथा अविद्यमान वस्तु में नहीं है' का प्रयोग नहीं होता है।"१०७ चार्वाकवादी कहते हैं कि 'जीव' शब्द शरीर के लिए प्रयुक्त हुआ है। इस पर उ. यशोविजयजी कहते हैं कि “घटादि की तरह 'जीव' पद शुद्ध व्युत्पत्ति वाला और सार्थक है तथा जीव और शरीर शब्द की पर्याएं पृथक्-पृथक् होने से जीव पद का अर्थ शरीर नहीं माना जा सकता है। “१०८ अजीवत. जीवति. जीविष्यति जीया, जो जीता है और जो जीएगा वह जीव कहलाता है। जीव शब्द के पर्याय हैं- जन्तु, प्राणी, सत्त्व, आत्मा, चेतन आदि; जबकि शरीर के पर्याय हैं- देह, तन, वपु, काया, कलेवर आदि। इसका अर्थ यह हुआ कि जीव और शरीर-ये दो पद एक दूसरे के पर्यायरूप नहीं हैं। दूसरी बात शरीर और जीव के लक्षण भी अलग-अलग हैं। अतः दोनों को पृथक् मानना चाहिए। इस प्रकार चार्वाकदर्शन तर्क और अनुभव की कसौटी पर खड़ा नहीं रह सकता है। शरीर से भिन्न चैतन्य एक शक्ति है और यह चैतन्यशक्ति ही आत्मा है। बौद्ध मत की समीक्षा बौद्धदर्शन मानता है कि आत्मा नित्य नहीं है। आत्मा ज्ञान क्षण की आवलीरूप है। आवली यानी परंपराधारा या संतान। उनकी मान्यता है कि प्रत्येक क्षण आत्मा जन्म लेती है और दूसरे ही क्षण वह नष्ट हो जाती है। इस प्रकार उत्पन्न होने की और नष्ट होने की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। सतत् चलते रहने से नित्यता का आभास होता है, परंतु आत्मा नित्य नहीं है, क्योंकि नित्यत्व में अर्थक्रिया नहीं घटती है। १०७. यत्त्व. सर्वथा नास्ति तस्य निषेधा न दृश्यत एव। -विशेषावश्यकभाष्य-टीका -पृष्ठ ६८४ १०८. शुद्धं व्युत्पत्तिमज्जीवपदं सार्थ घटादिवत् तदर्थश्च शरीरं नो पर्यायपदभेदतः ।।२६।। मिथ्यात्व त्याग अधिकार-अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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