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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ६६ उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- "बौद्धों की यह मान्यता तर्कसंगत नहीं है। आत्मा को क्षणिक मानने से किए हुए कार्य की हानि और नहीं किए हुए कार्य के फल की प्राप्ति होगी।"१०६ जैसे एक मनुष्य किसी दुकानदार से वस्तु उधार ले गया। जब वह पैसे देने वापस जाता है, तो दुकानदार भी वही नहीं होगा और उधारी चुकाने वाला भी भिन्न व्यक्ति होगा। इससे व्यवहार नहीं चल सकेगा, उसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में भी असंगति आएगी, जिसने पुण्यकार्य किया वह उसके फल को नहीं भोगेगा। पुण्य कर्म करने वाला दूसरा और उसका फल भोगने वाला दूसरा होगा। पुण्य करने वाला दूसरा और फल भोगने वाला दूसरा, यह एक प्रकार की असंगति होगी। विशेषावश्यकभाष्य में भी कहा है “परदेस में गया हुआ कोई व्यक्ति स्वदेश की घटनाओं का स्मरण करता है। अतः उसे नष्ट नहीं माना जा सकता अन्यथा वह पूर्व की घटनाओं का स्मरण कैसे करेगा? पूर्व जन्म का स्मरण करने वाले व्यक्ति को भी सर्वथा नष्ट नहीं माना जा सकता है।""० हेमचन्द्राचार्य ने भी वीतरागस्तोत्र में एकान्त नित्य तथा एकान्त अनित्य को नैतिक दृष्टि से अनुपयुक्त बताते हुए लिखा है- “यदि आत्मा को एकान्त अनित्य माने, तो सुख-दुःख, शुभ-अशुभ आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ आत्मा में घटित नहीं होंगी। इस कारण से पुण्य-पाप की विभिन्न वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ भी सम्भव नहीं होगी। न बन्धन की, न मोक्ष की उपपत्ति सम्भव होगी। वहाँ एक क्षण के पर्याय ने जो कार्य किया था, उसका फल दूसरे क्षण के पर्याय को मिलेगा, क्योंकि वहाँ उन सतत परिवर्तनशील पर्यायों के मध्य कोई एक स्थायी तत्त्व नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि जिसने किया था, उसे फल नहीं मिला और जिसने नहीं किया था, उसे फल मिला। यहाँ जैन कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से 'अकृतागम और कृत प्रणाश' का दोष होगा।"१११ १०६. मिथ्यात्ववृद्धिकृन्नूनं तदेपदपि दर्शनम् । क्षणिके कृत्तहानिर्यत्तथात्मन्यकृतागमः।।३४।। -मिथ्यात्वत्यागाधिकार -अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी जह वा सदेसक्तं नरो संरतो विदेसम्मि -विशेषावश्यकभाष्य -१६७१ १११. आत्मन्येकान्तनित्ये स्यान् भोगः सुखःदुःखयो। एकान्तनित्यरुपेऽपि, न भोगः सुखःदुःखयो।।२।। पुण्यपापे बन्धमोक्षौ न नित्यैकान्त दर्शने। पुण्यपापे बन्धमोक्षौ नानित्येकान्तदर्शने।।३।। -वीतरागस्तोत्र -अष्टमःप्रकाशः -आचार्य हेमचन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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