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________________ १००/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री इसके उत्तर में बौद्ध दार्शनिक कहते हैं कि पूर्व-पूर्व विज्ञान क्षण के संस्कार उत्तर-उत्तर विज्ञान- क्षण में संक्रान्त होते हैं, इससे आत्मा क्षणिक होने पर भी वासनाओं के संक्रमण का सातत्य रहता है, इसलिए वासनानुसार कर्मफल भोगने में आता है। पूर्व क्षण की आत्मा कार्य करने के लिए कुछ विशिष्ट होती है। इसे वैजात्य या अर्थक्रियाकारित्व भी कहते हैं, जिससे नई उत्पन्न हुई आत्मा को स्मृति संस्कार प्राप्त होते हैं। इस प्रकार वासना का संक्रमण होता है। "वैजात्य के बिना क्षणिकत्व नहीं टिक सकता है। क्षणिकत्व की बात स्वीकारो, तो वैजात्य या अतिशय-विशेष या कारण विशेष स्वीकारना पड़ेगा जिससे कार्य विशेष होता है। अब जो विशिष्ट कारण कार्य स्वीकारें तो सामान्य कारण कार्य उत्पन्न होता है, इस अनुमान का उच्छेद हो जाएगा, इसलिए अनुमान से पदार्थ में क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है। संक्रमण नेत्र से नहीं दिखता है, इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण से क्षणिकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है।" विशेषावश्यकभाष्य की टीका में कहा गया गया है- “यदि विज्ञान क्षण का सर्वथा निरन्वय नाश माना जाय तो पूर्व-पूर्व विज्ञान क्षण से उत्तर-उत्तर विज्ञान क्षण सर्वथा भिन्न ही होगा। इस स्थिति में पूर्व विज्ञान द्वारा अनुभूत वस्तु का स्मरण उत्तर विज्ञान में संभव नहीं है।"१३ बौद्ध दार्शनिक कहते है कि आत्मा को नित्य मानने से उसमें अर्थक्रिया नहीं घट सकती है। उ. यशोविजयजी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं- “अनेक कार्यों को क्रम से करने का आत्मा का स्वभाव है। स्याद्वाद शैली में आत्मा को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानने पर नित्यत्व में अर्थक्रिया का विरोध नहीं रहता है।"78 जैनदर्शन आत्मा को द्रव्य से नित्य और पर्याय से अनित्य ११२. न वैजात्य विना तत्स्यान्म तस्मिन्ननुमा भवेत् विना तेन न तत्सिद्धिर्नाध्यक्षं निश्चयं विना ।।३७ ।। - अ. न्यायकुसुमांजलि -प्रथम स्तवक -१६ वीं कारिका -उदयनाचार्य, ब. मिथ्यात्वत्यागाधिकार-अध्यात्मसार-उ.यशोविजयजी ११३. न च पूर्व-पूर्व क्षणानुभूतमाहित संस्कारा उत्तरोत्तर क्षणाः स्मरन्तीति वक्तव्यम्। पूर्व पूर्व क्षणानां निरन्वयविनाशेन सर्वयाविनष्टत्वात् उत्तरोत्तर क्षणानां सर्वथाऽन्यत्वात् -विशेषावश्यकभाष्य टीका-पृष्ठ- ७१३ ११४. नानाकाक्यंकरणस्वाभाव्ये च विरुध्यते। स्याद्वादसंनिवेशेन नित्यत्वेऽर्थक्रिया न हि ।।४०।। - मिथ्यात्वत्यागाधिकार -अध्यात्मसार -उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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