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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / १०१ मानता है। बौद्ध दार्शनिकों का कहना है कि आत्मा को नित्य मानने से उस पर राग उत्पन्न होता है। वस्तु क्षणिक हो, विनाशी हो, तो उस पर राग उत्पन्न नहीं होता है। आसक्ति से तृष्णा, मोह, लालसा आदि भावों का जन्म होता है, इसलिए संक्लेश बढ़ता है। दूसरी तरफ आत्मा को क्षणिक मानने से उसके प्रति प्रेम की निवृत्ति होती है, इससे आसक्ति घटती है, परंतु बौद्धदर्शन की इस दलील में तथ्य नहीं है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- “आत्मा को नित्य, अनादि, अनंत मानने से उसके प्रति जो प्रेम होता है, वह संक्लेश उत्पन्न करे, इस प्रकार का अप्रशस्त राग नहीं है किन्तु प्रशस्त राग है। बौद्धदर्शन में ज्ञानधारा के आकार जैसे निवृत्त हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव का आत्मा के लिए प्रेम भी ज्ञानदशा उच्च होने पर निवृत्त हो जाता है।' उच्च आत्मिक दशा प्राप्त होने पर निर्वाण या मोक्ष के लिए भी प्रेम नहीं रहता है। ११५ 22 आत्मा को एकान्त क्षणिक मानने में कोई लाभ नहीं है। आत्मा को अनित्य मानने से संसार में अनवस्था उत्पन्न हो जाएगी। कोई व्यक्ति चोरी करके भी इंकार कर देगा कि मैंने चोरी नहीं की, क्योंकि वह चोरी करें, उसके पहले तो उसकी स्वयं की आत्मा नष्ट हो गई थी। आत्मा, जो स्वतः उत्पन्न होती है और स्वतः नष्ट होती हैं, उसके लिए शुभ - अशुभ कर्मबंध की कोई बात नहीं होगी। इसलिए उ. यशोविजयजी कहते हैं- “ नित्य सत्, चित् और आनंद पद को प्राप्त करने की इच्छा वालों को एकान्त अनित्यवाद या क्षणिकवाद त्यागने योग्य है । ११६ सांख्य दर्शन की समीक्षा : " कपिल का दर्शन सांख्य मत कहलाता है। यह आत्मा को पुरुष के रूप में स्वीकार करता हैं। इनकी मान्यता है कि पुरुष ( आत्मा ) कर्म का कर्त्ता और भोक्ता नहीं है। वह एकान्त नित्य तथा निरंजन है। उसका प्रकृति के साथ संबंध होने से मैं कर्ता हूँ मैं भोक्ता हूँ- ऐसा भ्रम होता है। प्रकृति के २५ तत्त्वों में एक मुख्य तत्त्व बुद्धि है और वे बुद्धि को ही कर्त्री भोक्त्री और नित्य मानते हैं। ११५. ध्रुवेक्षणेऽपि न प्रेम निवृत्तमनुपप्लवात् ग्राह्याकार इव ज्ञाने गुणस्तन्नात्र दर्शने ।। ४२ ।। मिथ्यात्वत्यागाधिकार- अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी ११६. तस्मादिदमपि त्याज्यमनित्यत्वस्यद दर्शनम् नित्यसत्यनिदानंदपदसंसर्गमिच्छता ।।४४ ।। - मिथ्यात्वत्यागाधिकार - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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