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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ६१
गया है- “जैसे घी ऊष्ण अग्नि के संयोग से, ऊष्ण है- ऐसा भ्रम होता है, उसी प्रकार मूर्त अंग के सम्बन्ध से, आत्मा मूर्त है- ऐसा भ्रम होता है।" अग्नि का गुणधर्म ऊष्णता है, घी का गुणधर्म ऊष्णता नहीं है, परंतु घी को अग्नि पर तपाने से घी के शीतल परमाणुओं के बीच अग्नि के उष्ण परमाणु प्रवेश कर जाते है; इसलिए घी गरम है- ऐसा भ्रम होता है। गरम घी खाने पर भी शरीर में ठंडक ही करता है, कारण शीतलता उसका स्वभाव है; उसी प्रकार आत्मा शरीर में रहने से मूर्त प्रतीत होती है, परंतु स्वलक्षण से अमूर्त ही है। "आत्मा का गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श, आकृति, शब्द नहीं है; तो उसमें मूर्त्तत्व कहाँ से है।“८८ अतः आत्मा अमूर्त है।
वस्तुतः आत्मा और शरीर में एकत्व माने बिना स्तुति, वंदन, सेवा आदि अनेक धार्मिक आचरण की क्रियाएँ संभव नहीं हैं। दूसरी ओर आत्मा और देह में भिन्नता माने बिना आसक्तिनाश तथा भेदविज्ञान की संभावना नहीं हो सकती है। अतः आत्मा और शरीर कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं। ___ आत्मा के भेद - प्रत्येक आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं (पर्यायों) के आधार पर जैनागमों में आत्मा के भेद किए गए हैं।८६ भगवतीसूत्र में आत्मा के आठ भेद किए गए हैं -
१. द्रव्यात्मा - आत्मा का तात्त्विक स्वरूप २. कषायात्मा - क्रोधादि कषायों या मनोवेगों से
युक्त चेतना की अवस्था ३. योगात्मा - शरीर से युक्त होने पर चेतना की कायिक, वाचिक
और मानसिक क्रियाओं की अवस्था।
६७. उष्णस्याग्नेर्यथा योगाद् धृतमुष्णमिति भ्रमः
तथा मुगिसंबंधदात्मा मूर्त इति भ्रमः ।।३६।। -आत्मनिश्चयाधिकार-अध्यात्मसारं ३
यशोविजयजी ५८. न रूपं न रसो गंधो न, न स्पर्शों न चाकृतिः
यस्य धर्मो न शब्दो वा तस्य का नाम मूर्तता ।।३७ ।। - आत्मनिश्चयाधिकार
-अध्यात्मसार ३ यशोविजयजी ८६. वही १२/१०/४६७
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