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________________ ६०/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री है। एक ही व्यक्ति में बालपन, यौवन, वृद्धावस्था आदि अवस्थाएं देखने में आती हैं, लेकिन इसमें रही हुई विशुद्ध आत्मा न तो बालक है और न ही वृद्ध आत्मद्रव्य सर्वत्र सर्वकाल में एक ही जैसा है । ८३ आत्मा मूर्त या अमूर्त, देह से भिन्न या अभिन्न : उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं- "व्यवहारनय को मानने वाले आत्मा में कथंचित मूर्त्तता मानते हैं, कारण कि उसमें वेदना का उद्भव होता है । ८४ देह और आत्मा एक ही क्षेत्र में रहे हुए हैं। किसी मनुष्य को लकड़ी से प्रहार करें, तो वह वेदना शरीर में होती हैं, आत्मा तो मात्र दृष्टा होती है। मूर्त्त द्रव्यकृत परिणाम मूर्त्त द्रव्य में ही होता है, अमूर्त्त में नहीं । देहधारी जीव पर प्रहार करने से उसे जो वेदना होती है, वह शरीर के प्रति होती है, इसीलिए जैन दर्शन संसारी आत्मा में कथंचित् मूर्त्तता स्वीकारता है। ममत्व के कारण इस प्रकार व्यवहारनय अमुक अंश में देह के साथ आत्मा की अभिन्नता मानता है। भगवान् महावीर के सम्मुख जब यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि भगवान् जीव वही है, जो शरीर है; या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है ? भगवान् महावीर ने उत्तर दिया- " गौतम! जीव शरीर भी है और शरीर से भिन्न भी है। " इस प्रकार भगवान् महावीर ने आत्मा और देह के मध्य भिन्नत्व तथा एकत्व दोनों को स्वीकार किया है। ८५ आचार्य कुंदकुंद ने कहा कि व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा और देह एक ही हैं, लेकिन निश्चयदृष्टि से आत्मा और देह कदापि एक नहीं हो सकते हैं । ६ उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में निश्चयनय से कथन करते हुए कहा ८३. ८४. ८५. ८६. यथैकं हेम केयूरकुंडलादिषु वर्तते । नृनारकादिभावेषु तथात्मैको निरंजन: ।। २४ ।। ( ७०१ ) - आत्मनिश्चयाधिकार- अध्यात्मसार ३, यशोविजयजी देहेन सममेकत्वं मन्यते व्यवहारवित् कथांचिन्मूर्तताफ्तेर्वेदनादिसमुद्भवात् ।।३४।। ( ७११) - आत्मनिश्चयाधिकार- अध्यात्मसार ३, यशोविजयजी भगवतीसूत्र १३ / ७ / ४६५ व्यवहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इवको । दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदापि एक हो । । ३२ ।। - समयसार - आचार्य कुन्दकुन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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