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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ८६ उसी प्रकार आत्मा से उसके ज्ञानादि गुण अभिन्न है।" प्रश्न उठता है कि यदि ज्ञान-दर्शन-चारित्र तीनों अलग-अलग हैं, तो ये तीनों आत्मा में एक साथ कैसे रह सकते हैं। इसका उत्तर यह है कि "जैसे रत्न की प्रभा, निर्मलता और शक्ति (वांछित फल प्रदान करने की चिंतामणि रत्न की शक्ति) आदि अलग-अलग होने पर भी तीनों गुण आत्मा में एक साथ रह सकते हैं; उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र- ये तीनों गुण आत्मा से अभिन्न हैं।" निश्चयनय से आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है आत्मा ही चरित्र है। उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं-“वस्तुतः ज्ञानादि गुण का स्वरूप आत्मा से भिन्न नहीं है, अन्यथा आत्मा-अनात्मा रूप हो जाएगी और ज्ञानादि गुण भी जड़ हो जाएंगे, परंतु ऐसा शक्य नहीं है।" इसीलिए आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणों के बीच अभिन्नता है। आत्मद्रव्य सर्वत्र सर्वकाल एक जैसा है : ___संसार में मनुष्य, तिथंच, देव और नारकी-इन चारों गतियों के अनंतानंत जीव हैं। प्रतिसमय जन्म-मरण का चक्र चल रहा है। “पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्" का क्रम चल रहा है, परंतु इन सब में रही हुई विशुद्ध आत्मा ज्ञानगुण से और आत्मप्रदेशों से एक जैसी है। स्थानागंसूत्र में यह कहा गया है कि 'एगे आया' अर्थात् आत्मा एक है। आत्माएँ अनंत होने पर भी चौदह राजलोक की सभी आत्माएँ समान हैं, इसका आशय यही है कि सभी जीवों में स्वरूप दृष्टि से एक ही प्रकार की आत्मा रही हुई है। इसीलिए 'संग्रहनय' की दृष्टि से आत्मा एक है- यह कहने में आया है। आत्मा के द्वारा धारण किए हुए देह भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु यह भिन्नता बाह्य है, भ्रामक है, क्षणिक है। इसे उपाध्याय यशोविजयजी ने सुवर्ण के अंलकारों का उदाहरण देकर बताया है- “एक ही स्वर्ण से कंगन, कुंडल आदि बनाने में आते हैं। कंगन को गलाकर हार बनाया जाता है, हार को गलाकर पोंची बनाई जाती है, ये सभी अलंकार नाम, रूप आदि में भिन्न हैं; किंतु उन सबमें रहा हुआ स्वर्ण तो वही १. प्रभानैर्मल्यशक्तीनां यथा रत्नान्न भिन्नता। ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणानां तथात्मनः ।।9। आत्मनिश्चयाधिकार-अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी वस्तुतस्तु गुणानां तद्रूपं न स्वात्मनः पृथक्।। आत्मा स्यादन्यथाऽनात्मा ज्ञानाद्यपि जउं भवेत् ।।११। वही ८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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