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१५/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है, वह दर्शनोपयोग कहा जाता है और जो वस्तु के विशिष्ट स्वरूप को ग्रहण करे, उसे ज्ञानोपयोग कहा जाता है। भाष्य में कहा जाता है कि ज्ञान में जो स्थिरता है, वही चारित्र है। यहाँ ज्ञान व चारित्र को भी अभेदरूप में मान लिया गया है, अतः आत्मा ज्ञानोपयोगमय और दर्शनोपयोगमय इन दो लक्षणों से युक्त हैं।
चूँकि ज्ञान आठ प्रकार का है, अतः "ज्ञानोपयोग भी आठ प्रकार का है"- (१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान (६) मतिअज्ञान (७) श्रुतिअज्ञान और (८) विभंगज्ञान। इन आठ प्रकार के ज्ञानों में से आत्मा जब और जिस उपयोग में जानने की क्रिया करता है, तब उसका उपयोग भी उसी प्रकार का हो जाता है।
निराकार (दर्शन) उपयोग चार प्रकार का है। (१) चक्षु दर्शनोपयोग (२) अचक्षु दर्शनोपयोग (३) अवधि दर्शनोपयोग (४) केवल दर्शनोपयोग
आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय :
___ उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा गया है- “जब आत्मा, आत्मा के द्वारा, आत्मा को ही, आत्मा में जानती है, तो वही आत्मा चारित्ररूप और वही आत्मा दर्शनरूप होती है।"८° इन गुणों को आत्मा से भिन्न नहीं किया जा सकता है। आत्मस्वरूप में रमण करने की प्रवृत्ति त्यागने से चारित्ररूप, आत्म-स्वरूप को जानने से ज्ञानरूप, और स्वयं के असंख्येय प्रदेशों में फैलकर रहने वाला होने से सहजरूप ज्ञानादि अनंत पर्याय वाला मैं हूँ अन्य नहीं, इस प्रकार का निर्धारण ही दर्शन होता है। इस प्रकार आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र लक्षण से भी पहचानी जाती है। उपाध्याय यशोविजयजी ने आत्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्र से भी अभिन्न है, यह बताने के लिए एक रत्न का उदाहरण दिया है। "रत्न का तेज और रत्न अलग-अलग नहीं हैं। रत्न को ग्रहण कर लिया जाए, तो उसका तेज उससे अलग होकर नहीं रहता, वह रत्न के साथ ही रहता है। रत्न और तेज (चमक) को अलग नहीं कर सकते, दोनों में गुण और गुणी का सम्बन्ध है।
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आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना। सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिखच्याचारैकता मुनेः ।।२। ज्ञानसार, १३/२, उ. यशोविजयजी
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