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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ८७
मनःपर्यवज्ञान में अनेक पर्यायों के ज्ञान से आत्मा के भी अनेक भेद हो जाएंगे। इस जिज्ञासा के समाधान की दृष्टि से सूत्रकार कहते हैं कि यह आत्मा जिस-जिस ज्ञान में परिणत होती है, उस उसको प्राप्त कर वह वैसी ही बन जाती है। इसलिए वह आत्मा उस ज्ञान की अपेक्षा से जानी जाती है। जब वह घट के ज्ञान से युक्त होती है, तब वह आत्मा घटज्ञान वाली होती है। घटज्ञान में पट की चेतना (उपयोग) नहीं होती है और न पटज्ञान में घट की चेतना (उपयोग) होती है। इस प्रकार श्रोत्र के विषय में उपयुक्त होकर श्रोत्रेन्द्रिय यावत रस के विषय में उपयुक्त होकर रसनेन्द्रिय हो जाती हैं। क्योंकि “आत्मा उत्पाद -व्यय ध्रौव्य युक्त है, आत्मा का अस्तित्त्व ध्रुव है, ज्ञान के परिणाम उत्पन्न होते है और नष्ट होते है, इसलिए आत्मा द्रव्य अपेक्षा से एक है और पर्याय अपेक्षा से अनेक।
जैसे सिन्धु का जल न एक है और न अनेका वह जलराशि की दृष्टि से एक है और अलग-अलग जल बिन्दुओं की दृष्टि से अनेक भी है। समस्त जलबिन्दु अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व रखते हुए उस जलराशि से अभिन्न ही हैं। इस प्रकार की प्रेरणा से ज्ञानगुण मनःपर्यव आदि अनेक पर्यायों की चेतना से युक्त होते हुए भी आत्मा से अभिन्न है।
जीव(आत्मा) का लक्षण-भगवतीसत्र ६ उत्तराध्ययन७७ तथा तत्त्वार्थसत्र में कहा गया है कि जीव का लक्षण उपयोग है। लक्षण द्वारा किसी भी वस्तु को अन्य वस्तुओं से अलग करके पहचाना जा सकता है; यही लक्षण की विशेषता है। उपयोग जीव का आत्मभूत लक्षण है। यह संसारी और सिद्ध-दोनों ही दशाओं में रहता है। जीव का यह लक्षण त्रिकाल में भी बाधित नहीं हो सकता है। यह लक्षण असंभव, अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषों से रहित और पूर्णतः निर्दोष हैं। बोध, ज्ञान, चेतना और संवेदन-ये सभी उपयोग के पर्यायवाची शब्द हैं।
: "उपयोग दो प्रकार का कहा गया है-निराकार उपयोग और साकार उपयोग।"७६ इनको क्रमश: दर्शन और ज्ञान भी कहा जाता है। जो वस्तु के
७५. आत्मा उत्पादव्ययधौव्ययुक्तः। आत्मनः अस्तित्वं ध्रुवं, ज्ञानस्य परिणामाः अत्पद्यन्ते व्ययन्ते
च - आचारांग महाभाष्य -२८४ -आचार्य महाप्रज्ञ ७६. उपओगलक्खणे जीवे - भगवतीसूत्र भ. २, उद्देशक १० ७७. जीवो उवओग लक्खणो -उत्तराध्ययन -२८१० । ७८. उपयोगो लक्षणम् १८१ -तत्त्वार्थसूत्र अध्याय -२ ७६. दुविहे उवओगे पण्णत्ते -सागारोवओगे,अणागारोवओगे य-प्रज्ञापना सूत्र -पद -२६
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