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८६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
"जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है।" आत्मा और ज्ञान में एक दृष्टि से तादात्म्य है। आत्मा द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है। यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा गया है- "मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ और शुद्ध ज्ञान ही मेरा गुण है।"७२ द्रव्य से गुण भिन्न है, या अभिन्न; इस जिज्ञासा को शांत करने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा ज्ञानशून्य नहीं है। जो विज्ञाता हैं, वह आत्मा है; इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञान आत्मा के बिना नहीं है। चूर्णिकार कहते हैं- "कोई भी आत्मा ज्ञान-विज्ञान से रहित नहीं है। जैसे अग्नि ऊष्णता के गुण से रहित नहीं होती है, ऊष्णता अग्नि से भिन्न पदार्थ नहीं है इसलिए अग्नि के कथन से ऊष्णता का कथन स्वयं हो जाता है; उसी प्रकार आत्मा के कथन से विज्ञान, अर्थात् चेतना का कथन स्वयं हो जाता है और विज्ञान या चेतना के कथन से आत्मा का कथन भी स्वंय हो जाता है। ७३ भगवतीसत्र में भी आत्मा और चैतन्य का अभेद प्रतिपादित है। व्यवहार में हम कहते हैं कि 'आत्मा का ज्ञान'; यहाँ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करके 'का' प्रत्यय लगाने से आत्मा और ज्ञान अलग-अलग हों, ऐसा आभास होता है। वास्तव में निश्चयनय की दृष्टि से तो आत्मा ही ज्ञान है। इसे यशोविजयजी ने घड़े का उदाहरण देकर समझाया है कि"घड़े का रूप-यह व्यवहार से बोलने की पद्धति है। घड़े का आकार या रूप षष्ठी विभक्ति से यानी कल्पना से उत्पन्न हुआ है, परंतु निश्चयनय की दृष्टि से घड़े और उसका रूप-दोनों में अभेद है। दोनों को अलग-अलग नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान- यह तो व्यवहारनय की दृष्टि से ही आत्मा और ज्ञान को अलग बताने में आता है, किंतु निश्चयनय से या तात्त्विक दृष्टि से देखें, तो आत्मा ही ज्ञान है, अर्थात् आत्मा यह ज्ञानस्वरूप है।
आत्मा एक या अनेक - यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या ज्ञान की अनेकता से प्रत्येक आत्मा की भी अनेकता हो जाएगी? यदि ऐसा मानेंगे तो फिर
७१. जे आया से विण्णाया से आया जेण विजाणपति से आया। २/५/५। आचारांगसूत्र
-संपादक मधुकर मुनि २. शुद्धात्मद्रव्य मेवाहं, शुद्ध ज्ञानं गुणो मम -मोहत्याग अष्टक -४ ज्ञानसार -उ.
यशोविजयजी ७३. आचारांग महाभाष्य -पृष्ठ २८३ - आचार्य महाप्रज्ञ ७४. घटस्य रुपमित्यत्र यथा भेदो मिकल्पजः आत्मनश्च गुणानो च तथा भेदो न तात्त्विकः ।।६।। -६८६
- आत्मनिश्चय अधिकार-अध्यात्मसार-उ. यशोविजयजी
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