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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/८५
तृतीय अध्याय अध्यात्मवाद का तात्त्विक आधार-आत्मा
आत्मा की अवधारणा एवं स्वरूप जैन-धर्म विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक धर्म है। उसका चरम बिन्दु हैआत्मोपलब्धि या आत्मा की स्व स्वरूप में उपस्थिति। अध्यात्मसार में उपाध्याय यशोविजयजी ने कहा है- “आत्मा को जानने के बाद कुछ जानने योग्य बाकी नहीं रहता है, परन्तु जिसने आत्मा को नहीं जाना, उसका दूसरा वस्तुगत ज्ञान निरर्थक है।" ६८ छांदोग्योपनिषद् में कहा है कि जो आत्मा को जानता है, वह सबको जानता है। आचारांगसूत्र में भी कहा गया है कि “जो अध्यात्म अर्थात् आत्मस्वरूप को जानता है, वह बाह्य जगत को जानता है।"६६ क्योंकि बाह्य की अनुभूति भी आत्मगत ही है इस संसार में जानने योग्य कोइ तत्त्व है, तो वह आत्मा ही है। आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है एक बार आत्म तत्त्व में, उसके स्वरूप में रुचि जगने के बाद फिर दूसरी वस्तुएँ तुच्छ और निरर्थक लगती है। अन्य द्रव्यों का ज्ञान आत्मज्ञान को अधिक स्पष्ट और विशद करने के लिए हो सकता है किंतु जिस व्यक्ति को आत्मज्ञान में ही रस नही है उसका अन्य पदार्थों का ज्ञान अंत में निरर्थक ही है इसलिए अग्रिम पृष्ठों में अध्यात्म के तात्त्विक आधार "आत्मा" के स्वरूप का वर्णन है।
६८. ज्ञाते ह्यत्मनि नो भूयो ज्ञातव्यमवशिष्यते
अज्ञाते पुनरेतस्मिन् ज्ञानमन्यन्निरर्थकम् ।। २ । अध्यात्मनिश्चय अधिकारः अध्यात्मसारः
३. यशोविजयजी ६६. यः आत्मवित् स सर्ववित् -छान्दोग्योपनिषद् ७०. जे अज्ज्ञत्थं जाणइ से वहिया जाणइ। -आचारांगसूत्रः
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