SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री इस संदर्भ में धर्म की परिभाषा "वत्थु सहावो धम्मो", इस प्रकार की गई है। वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है। जैसे जल का स्वभाव शीतलता है, अग्नि का धर्म ऊष्णता है, उसी प्रकार आत्मा का स्वाभाव समत्व है। एक अन्य दृष्टि से अनंतज्ञान, अनंतदर्शन और अनंतसुख को भी आत्मा का स्वभाव कहा गया है। आत्मधर्म को समझने के लिए पहले स्वभाव को समझना जरुरी है। अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना स्वभाव मान लेते हैं, जैसे- उसका स्वभाव क्रोधी है। प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध स्वभाव है? वस्तु का स्वभाव उसे कहते हैं, जो हमेशा उस वस्तु में निहित हो। स्वभाव में रहने के लिए किसी बाहरी संयोग की आवश्यकता नहीं होती है। वस्तु से उसके स्वभाव को अलग नहीं किया जा सकता जैसे जल का स्वभाव शीतलता है तो हम शीतलता को जल से अलग नहीं कर सकते हैं। यदि अग्नि के संयोग से उस गर्म भी करते हैं, तो अग्नि को हटाने पर वह स्वाभाविक रूप से थोड़ी ही देर में ठंडा हो जाता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का स्वभाव समत्व है या क्रोध - इस कसौटी पर दोनों को कसकर देखें, तो पहली बात यह है कि क्रोध कभी स्वतः नही होता है, बिना किसी बाहरी कारण के हम क्रोध नहीं करते हैं। गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरुरी है । प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा शांत हो जाता है। पुनः गुस्सा आरोपित होता है, तो उसे छोड़ा जा सकता है कोई भी व्यक्ति चौबीसों घण्टे क्रोध की स्थिति में नहीं रह सकता है, किंतु शांत रह सकता है, समत्वभाव में रह सकता है; अतः आत्मा के लिए क्रोध विधर्म है और समत्व स्वधर्म है। दूसरे शब्दों में समत्व का भाव या ज्ञाता - दृष्टा भाव में स्थित रहना ही धर्म है। उपाध्याय यशोविजयजी भी कहते हैं कि निश्चयनय से विशुद्ध ऐसी स्वयं की आत्मा में चित्रवृत्ति का दृष्टाभाव से रहना ही अध्यात्मधर्म है । अध्यात्मसार में उन्होंने बताया कि निश्चयनय पाँचवें देशविरति नामक गुणस्थान से ही अध्यात्म को स्वीकार करता है, क्योंकि यहाँ से चित्तवृत्ति का निर्मल होना प्रारंभ हो जाता है। ६७ धर्म को चाहे वस्तुस्वभाव के रूप में परिभाषित किया जाए, चाहे समता या अहिंसा के रूप में परिभाषित किया जाए, उसका मूल अर्थ यही है कि वह विभाव से स्वभाव की ओर यात्रा है और यही अध्यात्म और धर्म में तादात्म्य होता है। ६७ तत्पंचमगुणस्थानादारभ्यैवैतदिच्छति । निश्चयो व्यवहारस्तु पूर्वमप्युपचारत: ।।३।। - अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी सदाचारः एक बौद्धिक विमर्श - डॉ. सागरमल जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy