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________________ ८२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार में श्रावक के २१ गुणों का उल्लेख किया है- विशाल हृदयता, सौम्यता, स्वस्थता, लोकप्रियता, अक्रूरता, अशठता, गुणानुराग, दयालुता, दीर्घदृष्टि, कृतज्ञ, परोपकारी, वृद्धानुगामी आदि। ५६ समवायांग में एक अन्य दृष्टि से भी धर्म के रूपों की चर्चा मिलती है। इसमें क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य - दस धर्मों की चर्चा की गई है। आचारांग तथा स्थानांग में भी क्षमादि सद्गुणों को धर्म कहा गया है। नवतत्त्व प्रकरण में भी धर्म के दस रूप प्रतिपादित किए गए हैं । ६१ ६० वस्तुतः यह धर्म की सद्गुणपरक या नैतिक परिभाषा है। वे सभी सद्गुण जो सामाजिक समता को बनाए रखते हैं, सामाजिक समत्व के संस्थापन की दृष्टि से धर्म कहे गए हैं। वस्तुतः धर्म की इस व्याख्या को संक्षेप में हम यह कहकर प्रकट कर सकते हैं कि सद्गुण का आचरण ही धर्म है और दुर्गुण का आचरण ही अधर्म है। इस प्रकार जैन आचार्यों ने धर्म और नीति, या धर्म और सद्गुण में तादात्म्य स्थापित किया है। इसे उपाध्याय यशोविजयजी ने व्यवहारनय से अध्यात्म कहा है। वे कहते हैं- “ व्यवहारनय से बाह्य व्यवहार से पुष्ट निर्मल चित्त अध्यात्म है । " फिर भी उपाध्यायजी चित्त की निर्मलता को धर्म और अध्यात्म का मूल आधार मानते हैं। ६२ दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- “अहिंसा, संयम और तप में धर्म के सभी तत्त्व समाए हुए हैं, अतः अहिंसा, संयम और तप से युक्त धर्म उत्कृष्ट मंगल है | " ,,६३ ५६ ६० દૂર ६३ प्रवचन सारोद्धार - २३६ दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते तं जहां खंती, मुत्ती, अज्जवे मद्दवे, लाघवे, सच्चे संजमे तवे चियाए बंभचेरवासे - स्थानांग १०/७१२, आचारांग १ / ६१५, समवायांग १० / ६१ खंती मद्दव, अज्जव, मुत्ती तव संजमे अबोधत्वे सच्चं सोअं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो - ॥ २१ ॥ - नवतत्त्व प्रकरण श्रीमद्भागवत (४/४६) धर्म की पत्नियाँ एवं पुत्रों के रूप में इन सद्गुणों का उल्लेख है । अध्यात्मं निर्मलं बाह्य व्यवहारोपबंहितम् ।।३।। -अध्यात्मोपनिषद् - उ. यशोविजयजी धम्मो मंगल मुक्कट्ठे अहिंसा संजमो अ तओ । देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सयामणो || १ ।। - दशवैकालिक - प्रथम अध्ययन - शय्यंभवसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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