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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ८१
कुलधर्म :- परिवार या वंश-परम्परा के आचार, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुलधर्म है। उसी प्रकार गणधर्म तथा संघधर्म भी नियमों के परिपालन के रूप में हैं।
श्रुतधर्म:- सामाजिक दृष्टि से श्रुतधर्म का तात्पर्य शिक्षण - व्यवस्था संबंधी नियमों का पालन करना है।
चरित्रधर्म :- चरित्रधर्म का तात्पर्य है श्रमण एवं गृहस्थ धर्म के आचार नियमों का परिपालन करना। जैन आचार के नियमों एवं उपनियमों के पीछे सामाजिक दृष्टि भी है। अहिंसा संबंधी सभी नियम और उपनियम सामाजिक शांति के संस्थापन के लिए हैं। अनाग्रह सामाजिक जीवन से वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है। इसी प्रकार अपरिग्रह सामाजिक जीवन से संग्रहवृत्ति, अस्तेय और शोषण को समाप्त करता है ।
इन धर्मों के प्रतिपादन का उद्देश्य व्यक्ति को अच्छा नागरिक बनाना है, ताकि सामाजिक और पारिवारिक जीवन के संघर्षों और तनावों को कम किया जा सके तथा वैयक्तिक जीवन के साथ सामाजिक जीवन में भी शान्ति और समता की स्थापना की जा सके। ५७
धर्म : सदाचार के पालन के रूप में :
जैनाचार्यों के अनुसार सद्गुणों का आचरण या सदाचार आध्यात्मिक साधना का प्रवेशद्वार है। उनकी मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता है। आध्यात्मिक साधना से पूर्व इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है |
आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें 'मार्गानुसारी' गुण कहा है। उन्होंने योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में ३५ मार्गानुसारी गुणों का विवेचन किया है जैसे न्यायसम्पन्नवैभव, माता पिता की सेवा, पापभीरूता, गुरुजनों का आदर, सत्संगति, अतिथि, साधु, दीन जनों को यथायोग्य दान देना आदि ।'
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सदाचार एवं बौद्धिक विमर्श - डॉ. सागरमल जैन
योगशास्त्र - प्रथम प्रकाश
४७-५६ गाथा
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