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८०/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
या पारलौकिक आकांक्षा से करता है, तो वे वस्तुतः धर्म नहीं रह जाती हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने तो उसे भवाभिनंदी की संज्ञा देते हुए कहा है- “संसार में रुचि रखने वाला जीव आहार, उपाधि, पूजा, सत्कार, बहुमान, यशकीर्ति, वैभव आदि को प्राप्त करने की इच्छा से तप, त्याग, पूजा आदि जो भी अनुष्ठान करे तो वह अध्यात्म की कोटि में नहीं है, वह तो संसार की वृद्धि करने वाला है । ५५ वस्तुतः मिथ्यादृष्टि व्यक्तियों की इन क्रियाओं की चाहे लौकिक दृष्टि से सांसारिक प्रयोजनो की सिद्धि में कोई उपयोगिता हो, क्योंकि ऐसी दान - दया की प्रवृत्तियों के बिना संसार का व्यवहार नही चल सकता है, परंतु ये क्रियाएं मोक्षमार्ग में आध्यात्मिक प्रगति साधने के लिए उपयोगी नहीं हैं।
सामाजिक धर्म :- जैन आचार - दर्शन में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म की विवेचना की गई है, वरन् धर्म के सामाजिक पहलू पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
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स्थानांगसूत्र में धर्म के विभिन्न रूपों की चर्चा करते हुए राष्ट्रधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, कुलधर्म, गणधर्म, आदि का भी उल्लेख हुआ है। सामान्यतः ग्रामधर्म और नगरधर्म में विशेष अन्तर नहीं है। ग्राम एवं नगर के विकास, व्यवस्था तथा शान्ति के लिए जिन नियमों को बनाया है उनका पालन करना । नगर में एक योग्य नागरिक के रूप में जीना, नागरिक कर्तव्यों एवं नियमों का पूरी तरह पालन करना नगरधर्म है। आधुनिक सन्दर्भ में राष्ट्रधर्म का तात्पर्य राष्ट्रीय एकता एवं निष्ठा को बनाए रखना तथा राष्ट्र के नागरिकों के हितों का परस्पर घात न करते हुए राष्ट्र के विकास में प्रयत्नशील रहना है। राष्ट्रीय शासन के नियमों के विरूद्ध कार्य नहीं करना, राष्ट्रीय विधि-विधानों का आदर करते हुए उनका समुचित रूप से पालन करना आदि राष्ट्रधर्म है।
पाखण्डधर्म :- सामान्य नैतिक नियमों का पालन करना ही पाखण्डधर्म है । सम्प्रति पाखण्ड का अर्थ ढोंग हो गया है, वह अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है। पाखण्डधर्म का तात्पर्य अनुशासित, नियमित एवं संयमित जीवन है ।
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आहारोपधिपूजार्द्धि गौरव प्राप्ति बंधतः
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भवाभिनंदी यां कुर्यात् क्रियां साध्यात्म वैरिणी ।।५ ।। दसविहे धम्मे पण्णत्ते तं जहा
ग्राम धम्मे, नयर धम्मे, रट्ठ धम्मे, पासंड धम्मे, कुल धम्मे गणधम्मे सुधग्मे चरित्त धम्मै अत्थिकाय धम्मे स्थानांग १० / ७६० (पृ. ३१)
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अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी
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