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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ७६
वस्तुतः परपदार्थों में सुख मानना पराधीनता का लक्षण है। स्वाधीन सुख का त्याग करके इस पराधीन सुख की कौन इच्छा करेगा। इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी ने इस बात का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया है कि भौतिक सुख वास्तविक सुख नही है। आत्मिक सुख ही वास्तविक सुख है। आत्मिक गुणों के विकास से संसार में सुख-शांति और समृद्धि आ सकती है। इस प्रकार विज्ञान के विरोधी तो नहीं हैं, किंतु भौतिक जीवनदृष्टि के स्थान पर आत्मिक जीवन दृष्टि के माध्यम से ही विश्व में शांति की उपलब्धि हो सकती है - इस मत के प्रबल समर्थक हैं।
धर्म और अध्यात्म
धर्म मानव की
आध्यात्मिक विकास - यात्रा का सोपान है। धर्म और अध्यात्म के स्वरूप एवं पारस्परिक संबंध को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में होती है । अन्तत: धर्म और अध्यात्म अलग-अलग नहीं हैं, किन्तु प्राथमिक स्थिति में दोनों में भिन्नता है।
सामान्यतया आचार और व्यवहार के कुछ विधि-विधानों के परिपालन को धर्म कहा जाता है। नीतिरूप धर्म हमें यह बताता है कि क्या करने योग्य है तथा क्या करने योग्य नहीं है ? किन्तु आचार के इन बाह्य नियमों के परिपालन मात्र को अध्यात्म नहीं कहते है। व्यक्ति जब क्रियाकलापों से ऊपर उठकर आत्मविशुद्धि रूप या स्वरूपानुभूति रूप धर्म के उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त करता है, तब धर्म और अध्यात्म एक हो जाते हैं।
धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे किन्हीं विधि-विधानों के आचरण रूप कर्तव्य या सदाचार के पालनरूप तथा स्वस्वरूप की अनुभूतिरूप हम धर्म के विभिन्न रूपों का अध्यात्म से संबंध बताते हुए धर्म का अन्तिम उत्कृष्ट स्वरूप जहाँ धर्म और अध्यात्म एक हो जाते हैं, का निरूपण करेंगें।
धर्मः कर्मकाण्ड के रूप में :
आज धर्म क्रियाकाण्ड के रूप में बहुत अधिक प्रचलित है। दान देना, पूजा करना, मन्दिर जाना, तीर्थयात्रा करना, साधर्मिकवात्सल्य करना, संघ की सेवा करना भक्ति करना, प्रतिष्ठा महोत्सव करना, आदि को व्यवहार में धर्म कहते हैं और इन्हें करने वाला धार्मिक कहलाता है। किंतु जब व्यक्ति ये क्रियाएँ इहलौकिक
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