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________________ ७८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री की दृष्टि से सर्वोच्च शिखर पर माना जाता है, किंतु इसके विपरीत यथार्थ यह है कि आज संयुक्तराष्ट्र अमेरिका में व्यक्ति को सुख की नींद भी उपलब्ध नहीं है। विश्व में नींद की गोलियों की सर्वाधिक खपत अमेरिका में ही हैं। अमेरिका के निवासी विश्व में सर्वाधिक तनावग्रस्त हैं। आखिर ऐसा क्यों? इसका कारण स्पष्ट है कि उन्होंने भौतिक सुख-सुविधाओं को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य बना लिया है। इसी स्थिति का चित्रण करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्मसार में लिखा है- "इस संसार में उन्माद को प्राप्त पराधीन बने प्राणी क्षण में हँसते हैं और क्षण में रोते हैं। क्षण में आनंदित होते हैं और क्षण में ही दुःखी बन जाते है। ” ५३ वस्तुतः उपाध्याय यशोविजयजी का यह चिन्तन आज भी हमें यथार्थ के रूप में प्रतीत होता है। यह सत्य है कि विज्ञान और तद्जन्य सुख-सुविधा के साधन न तो अपने-आप में अच्छे हैं, न बुरे । उनका अच्छा या बुरा होना उनके उपयोगकर्त्ता की दृष्टि पर निर्भर है। जब तक व्यक्ति में सम्यक् दृष्टि का विकास नहीं होता है, उसके वे सुख के साधन भी दुःख के साधन बन जाते हैं। चाकू अपने-आप में न तो बुरा है और न अच्छा। उससे स्वयं की रक्षा भी की जा सकती है और दूसरों की हत्या भी । मूलतः बात यह है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं। उपयोग करने के हेतु सम्यग्दृष्टि का विकास आवश्यक है । आध्यात्मिक जीवनदृष्टि ही वैज्ञानिक उपलब्धियों के उपयोग की सम्यक् दिशा प्रदान कर सकती है। उपाध्याय यशोविजयजी की दृष्टि में सर्वप्रथम दो बातों को जान लेना आवश्यक है। प्रथम तो यह कि सुख मात्र वस्तुनिष्ठ नहीं है, वह आत्मनिष्ठ भी है- और दूसरे यह कि सुख पराधीनता में नहीं है। पराधीनता चाहे मनोवृत्ति की हो या इन्द्रिय और शरीर की, वे सुख का कारण नहीं हो सकती हैं। वे स्वयं लिखते हैं- “यदि संसार में हाथी, घोड़े, गाय, बैल अर्थात् परिग्रहजन्य सुख सुविधा के साधन सुख के कारण हो सकते हैं, तो फिर ज्ञान, ध्यान और प्रशम् भाव आत्मिक सुख के साधन क्यों नहीं हो सकते' ५४ ५३ हसन्ति क्रीडन्ति क्षणमथ न खिद्यन्ति बहुधा । ५४ रूदन्ति क्रन्दन्ति क्षणामपि विवादं विदधते ।। - अध्यात्मसार यशोविजयजी भवे या राज्यश्रीगंज तुरगगो संग्रहकृता न सा ज्ञानध्यान प्रशमजनिता किं स्वमनसि - भवस्वरुपचिंता अधिकार - अध्यात्मसारउ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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