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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ७७ होती है, जबकि भिक्षा से जो भूख का शमन करता है, पुराना जीर्ण वस्त्र पहनता है, वन ही जिसका घर है, आश्चर्य है कि ऐसा निस्पृह मुनि चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी है। "५० सच्चा सुख तो वही हो सकता है, जो स्वाधीन हो और अविनाशी हो । इन्द्रियों के विषयों की आकांक्षा या इच्छा से रहित आत्मिक सुख तो अध्यात्म के माध्यम से ही उपलब्ध हो सकता है; क्योंकि वास्तविक सुख भौतिक सुख नहीं है, आत्मिक सुख ही वास्तविक सुख है। वे लिखते हैं- “अपूर्ण विद्या, धूर्त्त मनुष्य की मैत्री तथा अन्याययुक्त राज्य प्रणालिका जिस प्रकार अंत में दुःख प्रदाता है, उसी प्रकार सांसारिक सुखभोग भी वास्तविक सुख नहीं है। वे भी अंत में दुःख प्रदाता ही बनते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि जिस प्रकार कोई प्रेमी पहले प्रेमिका की प्राप्ति के लिए दुःखी होता है, उसके बाद उसका वियोग न हो इसकी चिंता में दुःखी होता है । इसलिए उपाध्याय यशोविजयजी की मान्यता है कि सांसारिक सुखों के साधनों के उपार्जन में व्यक्ति दुःखी होता है, फिर उन साधनों की रक्षण की चिंता में दुःखी रहता है फिर अंत में उनके वियोग या नाश होने पर दुःखी होता है इस प्रकार हम देखते है कि उपाध्याय यशोविजयजी भौतिक सुविधाओं से जन्मे सुख को दुःख का ही कारण मानते हैं। ५१ विशेषावश्यक भाष्य में भी कहा गया है- "विषय - सुख दुःख रूप ही हैं, दवा की तरह दुःख के इलाज के समान हैं। उन्हें उपचार से ही सुख कहते हैं। परंतु सुख का तत्त्व उसमें नहीं होने से उपचार भी नहीं घटता है । " ५२ उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि आध्यात्मिक सुख निर्द्वन्द्व या विशुद्ध होता है, जबकि भौतिक सुख में द्वन्द्व होता है, अर्थात् सुख के साथ दुःख जुड़ा हुआ होता है। उनका यह कथन वर्तमान परिस्थितियों में भी सत्य ही सिद्ध होता है। आज विश्व में संयुक्तराष्ट्र अमेरिका वैज्ञानिक प्रगति और तदूजन्य सुख-सुविधाओं ५० ५१ ५२ पूर्णा विद्येव प्रकटखलमैत्रीव कुनय प्रणालीपास्थाने विधववनितायौवनभिव ।। -अध्यात्मसार विषय सुहं दुषखं चिय, दुक्खप्पड़ियारओ निगिच्छव - Jain Education International यशोविजयजी तं सुहभुवयाराओ न उवयारो विणा तत्त्वं - विशेषावश्यकभाष्य पुरा प्रेमारंभे तदनु तदविच्छेदधरने तदुच्छेदे दुःखाव्यथ कठिनचेता विषहते- अध्यात्मसार - उ. यशोविजयजी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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