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________________ ७६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री फल मात्र लोकपंक्ति ही है। जिस धर्मक्रिया का फल मात्र लोकपंक्ति हो, तो वह धर्मक्रिया अधर्मस्वरूप ही है, क्योकि लोगो को प्रसन्न करने हेतु मलिन भावना द्वारा जो सत्क्रिया की जाती है, उसे लोकपंक्ति कहा गया है। चरमावर्त विंशिका में भी कहा गया है कि अचरम पुद्गलपरावर्त का काल धर्म के अयोग्य है तथा चरमावर्तकाल धर्मसाधना की युवावस्था है। इस प्रकार अध्यात्म के विभिन्न स्तरों का संक्षिप्त में विवेचन किया गया है। अब भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख का विवेचन किया जा रहा है। भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख वर्तमान युग विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक खोजों के माध्यम से मनुष्य को सुख- सुविधा के अनेक साधन उपलब्ध हैं। सुख-सुविधा के इन साधनों के योग में मनुष्य इतना निमग्न हो गया है कि वह आध्यात्मिक सुख-शांति और अनुभूति से वंचित हो गया है। वह भौतिक सुख को ही सुख मानने लगा है, किन्तु उपाध्याय यशोविजयजी ने स्पष्ट रूप से कहा है- “जब तक आत्मतत्त्व का बोध नहीं होता है, तभी तक सांसारिक विषय-वासनाओं में मनुष्य की रुचि बनी रहती है।" वे अध्यात्मसार में लिखते है- “मैं पहले, प्रिया, वाणी, वीणा, शयन, शरीरमर्दन आदि क्रियाओं में सुख मानता था, किंतु जब आत्मस्वरूप का बोध हुआ, तो संसार के प्रति मेरी रुचि नहीं रही, क्योंकि मैंने जाना कि संसार के सुख पराधीन हैं और विनाशशील स्वभाव वाले हैं। क्योंकि इच्छाएं और आकांक्षाएं हमारी चेतना के समत्व को भंग करती हैं। वे भय और कुबुद्धि का आधार हैं।"१८ यशोविजयजी ने ज्ञानसार ६ में यह कहा है कि- "इन्द्र, चक्रवर्ती, अर्द्धचक्रवर्ती (वासुदेव) आदि भी विषयों से अतृप्त ही रहते हैं, वे सुखी नहीं हैं। षट्रस भोजन, सुगंधित पुष्पवास, रमणीय महल कोमलशय्या, सरस शब्दों का श्रवण, सुंदर रूप का अवलोकन लंबे समय तक करने पर भी उन्हें तृप्ति नहीं कान्ताधरसुधास्वादायूनी यज्जायते सुखम्। बिन्दुः पार्श्वे तदध्यात्मशास्त्रास्वादसुखोदधेः ।।६।। - अध्यात्म माहात्म्य अधिकार, अध्यात्मसार, उ. यशोविजयजी भूशय्या भैक्षमशनं, जीर्णवासो ग्रहं वनं तथाऽपि निःस्पृहस्याहो चक्रिणोऽत्यधिकं सुखम् ।।७।। - १२वां अष्टक, ज्ञानसार -उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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