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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ७५ होता है जो कि संक्लेश मोहनीयकर्म की सत्तर कोटाकोटि कालप्रमाण स्थिति को अनेक बार कराए। क्योंकि सकृतबंधवाला जीवन में एक ही बार उत्कृष्ट स्थिति ( ७० कोटाकोटि सागरोपम) बांधने वाला होता है, परंतु उन जीवों को मोक्षमार्ग के विषय में यथार्थ उहापोह नहीं होता है और संसार के स्वरूप का निर्णय नहीं होता है, इसलिए उनमें पूर्वसेवास्वरूप ही अध्यात्मयोग मान सकते है। इससे उच्च स्तर का नहीं।
जो पुरुष अपुनर्बन्धकावस्था के सन्निकट है, वह प्रायः पूर्वसेवा के रूप में निरूपित आचार के विपरीत नहीं चलता है। उसका आचार शालीन होता है।
अध्यात्म- आभास
अभव्य और भवाभिनंदी जीवों को केवल अध्यात्मयोग का आभास ही होता है, क्योंकि अभव्य जीव तो अध्यात्म की प्राप्ति के लिए अत्यंत अयोग्य हैं, अभव्य जीव को मोक्ष पर श्रद्धा नहीं होती है, इसलिए उसके द्वारा किए हुए धार्मिक अनुष्ठान, व्रत आदि से अध्यात्म की प्रतीति होती है, किन्तु वह वास्तविक अध्यात्म नहीं होता है। उसी प्रकार भवाभिनंदी जीव अचरमावर्तकालवर्ती है इस कारण कभी वे जीव धर्म का आचरण करते भी हैं, तो इहलोक सुख, अर्थात् लोकप्रसिद्धि, यशकीर्ति आदि और परलोक, स्वर्गादि की प्राप्ति की अपेक्षा से करते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार' में भवाभिनंदी जीव का लक्षण बताते हुए कहा है- “भवाभिनंदी जीव को संसार में रहना अच्छा लगता है तथा वह क्षुद्र, तुच्छ, लोभी, कृपण स्वभाववाला, पराया माल ग्रहण करने की प्रवृत्तिवाला, दीन, इर्ष्यालु, डरपोक, कपटी, अज्ञानी ( तत्त्व को नहीं जानने वाला) ऐसे व्यक्तियों द्वारा निष्प्रयोजन अयोग्य और अंत में निष्फल हो-ऐसी क्रियाओं को करने पर वे क्रियाएं अशुद्ध कहलाती है । "
योगबिंदु ग्रंथ में हरिभद्रसूरि ने भी कहा है कि अचरमावर्तकाल में अध्यात्म नहीं घट सकता है, क्योंकि अचरमावर्तकालीन जीवों की धर्मप्रवृत्ति का
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क्षुद्रो लोभरतिर्दीनो मत्सरी भयवान् शठः
अज्ञो भवाभिनन्दी स्यान्निष्फलारंभ संगतः ||६ ।। - १. अध्यात्मस्वरुप
अधिकार - अध्यात्मसार - यशोविजयजी योगबिन्दु
-८७ गाथा - हरिभद्रसूरि
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