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७४/ साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
योगबिंदु में कारण में कार्य का उपचार करके व्यवहार से अपुनर्बंधक को अध्यात्म और भावना स्वरूप तात्त्विकयोग होता है, क्योंकि कारण भी कथंचित् कार्यस्वरूप है। अध्यात्मसार में यशोविजयजी ने भी कारण में कार्य का उपचार करते हुए कहा है
" अपुनर्बंधक भी जो शमयुक्त क्रिया करता है, वह दर्शनभेद से अनेक प्रकार की हो सकती है। ये क्रियाएँ भी धर्म में विघ्न करने वाले राग और द्वेष का क्षय करने वाली हो सकती हैं, इसलिए ये क्रियाएँ भी अध्यात्म का कारण होती हैं । ४५
अध्यात्म - अभ्यास -
“अध्यात्म के अभ्यासकाल में भी जीव कुछ शुद्ध क्रिया (जैसे दया, दान, विनय, वैयावृत्य ) करता है तथा शुभ ओघसंज्ञा वाला ज्ञान भी रहता है । ' सकृतबंधक आदि जीव तो अशुद्ध परिणाम वाले होने से निश्चय और व्यवहारनय से उनको अध्यात्मयोग नहीं होता है, परंतु केवल अध्यात्मयोग का अभ्यास ही होता है। अध्यात्म - अभ्यास यानी कभी-कभी उचित धर्मप्रवृत्ति सकृतबंधकादि को भाव अध्यात्म योगी के योग्य वेष, भाषा, प्रवृत्ति आदि स्वरूप अतात्त्विक अध्यात्म भावनायोग होता है, जो प्रायः अनर्थकारी होता है। योगबिन्दु में कहा है“अपुनर्बन्धक के अतिरिक्त अन्यों का पूर्वसेवारूप अनुष्ठान एक ऐसा उपक्रम है, जो आलोचन-विमर्श या स्वावलोकनरहित तथा उपयोगशून्य है।”४६ एक अपेक्षा से यह ठीक है। जब तक कर्ममलरूपी तीव्र विष आत्मा में व्याप्त रहता है, तब तक उसके दूषित प्रभाव के कारण सांसारिक आसक्ति तथा उस ओर आवेगों की प्रगाढ़ तीव्रता बनी रहती है, मिटती नहीं है । सायकल चलाने का अभ्यास करने वाले की तरह वह भी कभी - कभी गिरता है। प्रायः ऐसा अनर्थ सकृत्बंधकादि की प्रवृत्ति में होता है।
कुछ योगाचार्यों के अनुसार सकृतबंधकादि जीवों में अध्यात्मयोग मानने में कोई विरोध नहीं है, कारण कि उनको उस प्रकार का तीव्र संक्लेश बारबार नहीं
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अपुनर्बन्धकस्यापि या क्रिया शमसंयुता
चित्रा दर्शन भेदेन धर्मविघ्न क्षयाय सा । । १५ ।।
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- यशोविजयजी
अध्यात्मस्वरूप अधिकार / अध्यात्मसार
तत्प्रकृत्यैन, शैषस्य केचिदेनां प्रचक्षेत |
आलोचनाद्यभावेन तथाभोगसग्डताम् ।। १८२ ।। योगबिन्दु - हरिभद्रसूरि
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