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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ७३
अध्यात्म के विभिन्न स्तर उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्म के विभिन्न स्तर माने हैं
१. अध्यात्मयोग २. अध्यात्मबीज ३. अध्यात्म-अभ्यास तथा ४. अध्यात्म-आभास।
अध्यात्मयोग किसमें है? अध्यात्मबीज किसमें अंकुरित होता है? अध्यात्मयोग के अभ्यास की ओर कौन बढ़ रहा है? तथा किसे अध्यात्म का आभास होता हैं? इन सभी तथ्यों पर उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार विवेचन प्रस्तुत है।
शुद्ध निश्चय के मत से सर्वविरत मुनि को ही अध्यात्मयोग होता है। इसका कारण यह है कि संसाररूपी सागर को पार करने की तीवेच्छा से मुनि ने आध्यात्मिक विकास के छठे गुणस्थानक को प्राप्त कर लिया है और छठे गुणस्थानकवर्ती जीव में लोकैषणा नहीं होती हैं। अतः वही अध्यात्मयोग का वास्तविक अधिकारी होता है।
__ उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है- "धार्मिक मर्यादा में रहते हुए जिसने सर्वविरतिरूप छठा गुणस्थानक प्राप्त कर लिया है तथा जो संसाररूप विषम पर्वत को पार करने के लिए तैयार है, ऐसा मुनि लोकसंज्ञा, अर्थात् लोकैषणा का त्यागी होता है।"" गतानुगतिकता-नीति यानी दूसरे लोगों ने किया है, वही करना है, जो इस प्रकार की आग्रह बुद्धिवाला नहीं होता है, उसे ही अध्यात्मयोग होता है। शुद्ध निश्चयनय के मत से देशविरतिश्रावक को अध्यात्मयोग का बीज होता है।
व्यवहारनय से अनुगृहीत या अशुद्ध निश्चयनय से देशविरतिश्रावक को भी अध्यात्मयोग होता है। अपुनर्बधक और सम्यग्दृष्टि जीव को अध्यात्मयोग का बीज होता है।
व्यवहारनय से अपुनर्बंधक, मार्गाभिमुख मार्ग को प्राप्त सम्यग्दृष्टिश्रावक और साधु- सभी को अध्यात्मयोग तात्विक विशुद्धि में सम्भव होता है।
प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्रिलंघनम् लोकसंज्ञारतो न स्यान्मुनिलौकोत्तरस्थितिः ।। लोकसंज्ञात्याग-ज्ञानसार-यशोविजयजी
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