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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ७१ का विकाररूप है (वैभाषिक बौद्ध), यह ज्ञान मात्र स्वरूप है (योगाचार बौद्ध), शून्यस्वरूप है (माध्यमिक बौद्ध)। जगत् की रचना एवं स्वरूप के विषय में इस प्रकार की प्रान्तियाँ आभिसंस्कारिक कुविकल्प कहलाती है। गुणदोष की विचारणा से परामुख होना, सुख की आसक्ति और दुःख के द्वेष में तत्पर होना, कुचेष्टा, खराब वाणी, और गलत विचार लाना आदि लक्षण सहज कुविकल्प कहलाते हैं। ___ जब सद्गुरु के समागम से, सुनय के श्रवण-मनन आदि से दुर्नय से उत्पन्न कदाग्रह दूर हो जाता है और उसी प्रकार सहज मल का ह्रास, मिथ्यात्वमोहनीय का क्षयोपशम, तथा भव्यत्व के परिपाक आदि के द्वारा सहज कुविकल्प का भी त्याग हो जाता है और भवभ्रमण के परिश्रम को दूर करने के लिए विशुद्ध आत्मद्रव्य की ओर रुचि होती है, तब स्याद्वाद से प्राप्त निर्मल बोध वाला जीव अध्यात्म का अधिकारी होता है। शास्त्रों में अपुनबंधक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति- ये चार प्रकार के अध्यात्म के अधिकारी बताए गए हैं तथा चारों के लक्षण भी वर्णित किए गए हैं, जिससे सामान्य व्यक्ति भी अध्यात्म के अधिकारी और अनधिकारी को पहचान सके। ___ योगशतक में अपुनबंधक का लक्षण बताते हुए कहा गया है- “१. जो आत्मा तीव्र भाव से पाप नहीं करती है २. संसार को बहुमान नहीं देता है। ३. सभी जगह उचित आचरण करती है, वह अपुनबंधक जीव अध्यात्म की अधिकारी ___ यशोविजयजी ने सम्यक्त्व की ६७ बोल की सज्झाय में शुश्रूषा (शास्त्र-श्रवण की इच्छा), धर्मराग और वीतराग देव, पंचमहाव्रत पालनहार गुरु की पावं न तिव्वभावा कुणइ, ण बहुमण्णई भवं घोरं। उचियट्टिइं च सेवइ, सव्वत्थ वि अपुणबंधो त्ति।।१३ | Fयोगशतक -हरिभद्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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