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________________ ७०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ३. है।"२६ उदाहरण के लिए एक अयोग्य शिष्य को, गुरु के द्वारा दुर्गुणों को दिखाने वाला मन्त्रित दण्ड दे दिया गया। उसने उसे सर्वप्रथम अपने गुरु पर ही अजमाया और उनके दुर्गुणों को जानकर उसने अपने गुरु को ही छोड़ दिया। बाद में अहंकार के वशीभूत उसका भी पतन हो गया। इसीलिए प्रायः ग्रंथ के आरंभ में उसके अधिकारी का भी निर्देशन होता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्म के अधिकारी में तीन गुण होना जरुरी बताया है अलग-अलग नयों के प्रतिपादन से उत्पन्न हुई कुविकल्पों के कदाग्रह से निवृत्ति आत्मस्वरूप की अभिमुखता स्याद्वाद का स्पष्ट और तीव्र प्रकाश इन तीनों योग्यताओं द्वारा आत्मा में क्रमशः हेतु, स्वरूप और अनुबंध की शुद्धि होती है। यशोविजयजी ने अध्यात्म के अधिकारी में मुख्य रूप से माध्यस्थ गुण जरुरी बताया है। दार्शनिक, सांप्रदायिक और स्नेहरागादि से मुक्त आत्मा में अध्यात्म शुद्ध रूप में ठहर सकता है। अध्यात्म के लिए कदाग्रह के त्याग का महत्त्व देने का कारण यह है कि अध्यात्म मात्र तर्क का विषय नहीं है, अपितु अनुभूति का विषय है। अनुभूति और श्रद्धा के लिए सरलता जरुरी है। कुविकल्प दो प्रकार के होते हैं १. आभिसंस्कारिक कुविकल्प और २. सहज कुविकल्प मिथ्यानय से प्रयुक्त कुशास्त्र के श्रवण, मनन आदि से उत्पन्न हुए कुविकल्प आभिसंस्कारिक कहलाते हैं। जैसे-आत्मा क्षणिक है (बौद्ध), यह जगत् अंडे से उत्पन्न हुआ है (पुराण), ईश्वर द्वारा रचाया है (न्याय वैशेषिक दर्शन), ब्रह्मा द्वारा जगत् की रचना की गई है (भागवत दर्शन आदि), यह जगत् प्रकृति ३६ 10 अहिगारिनो, उपाएण, होइ सिद्धि, समत्त्थवत्त्थुम्मि फल पगरिस भावओ बिसेसओ जोगमग्गम्मि ।।८।। - योगशतक -हरिभद्रसूरि गलन्नयकृतभ्रान्तिर्यः स्याद्विश्रान्तिसम्मुखः स्याद्वादविशदलोकः स एवाध्यात्मभाजनम् ।।५।। -अध्यात्मोपनिषद् -यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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