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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ६६ १. चरणकरणाणुयोग की दृष्टि से विशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अनुसार अयतना आदि से युक्त असंयत आचार को परिहार करके यथाख्यातचारित्र के पालन में विरत विशुद्ध आत्मद्रव्य ही अध्यात्म है। - २. विशुद्ध पर्यायार्थिकनय के अनुसार प्रमाद आदि से उत्पन्न हुए असंयत आचार का त्याग करके आत्मद्रव्य में यथाख्यातचारित्र का प्रादुर्भाव होना ही अध्यात्म है।। ३. अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अनुसार असदाचार से सम्पन्न ऐसी भोगी अवस्था से निवृत्त हुआ और सदाचारी के परिपालन में निरत आत्मविशुद्धि की ओर अभिमुख आत्मद्रव्य ही अध्यात्म है। ४. अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के अभिप्राय से असंयमजन्य असदाचार का त्याग करके आत्मा में सदाचरण के गुण को प्रकट करना अध्यात्म है। अध्यात्मसार में यशोविजयजी ने कहा है कि चौथे गुणस्थानक में देवगुरु की भक्ति विनयवैयावच्च, धर्मश्रवण की इच्छा आदि क्रियाएं रही हुई हैं। वहाँ उच्च क्रिया नहीं होने पर भी- अशुद्ध पर्यायार्थिकनय से अध्यात्म है। स्वर्ण के आभूषण नहीं हों, तो चांदी के आभूषण भी आभूषण ही हैं। अध्यात्म के अधिकारी महान्, दुर्लभ ऐसे अध्यात्म को प्राप्त करने का अधिकारी कौन है? उसका स्वरूप क्या है? यह भी जानना जरुरी है, क्योंकि मूल्यवान वस्तुओं का विनियोग योग्य पात्र में ही होता है। जिससे स्व और पर-दोनों का हित हो। यदि आभूषण बनाना हों, तो स्वर्णकार को ही देंगें, कुम्भकार को नहीं क्योंकि स्वर्णकार ही इसके योग्य है, वही उस स्वर्ण को सुन्दर आभूषण के रूप में परिवर्तित कर सकता है। चाहे सत्ता हो, सम्पत्ति हो, या विद्या हो, अधिकृत व्यक्ति को प्रदान करेंगें, तो ही फलदायी होगी। योगशतक में हरिभद्रसूरि ने कहा है कि-समस्त वस्त में जो जीव जिस कार्य के योग्य हो, वह उस कार्य में उपायपूर्वक प्रवृत्ति करें, तो अवश्य ही सिद्धि मिलती है। उसी प्रकार “योगमार्ग या अध्यात्ममार्ग से ही विशेष सिद्धि प्राप्त होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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