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६५/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
वस्तु की विशुद्ध स्वभावदशा को ध्यान में रखकर पदार्थ का निरूपण करें, तो विशुद्ध निश्चयनय और अविशुद्ध अवस्था को ध्यान में रखकर वस्तु का निरूपण करें, तो उसे अविशुद्ध निश्चयनय कहते हैं।
इस व्याख्या के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त पदार्थ की व्याख्या करने वाले द्रव्यार्थिकनय के अध्यात्म के विषय में चार दृष्टिकोण हैं
१. विशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के अनुसार औदायिक आदि भावों से निष्पन्न, संसारी दशा से निवृत्त परमात्मभाव से अभिव्यक्त तथा द्रव्यत्वरूप में अनुगत-ऐसा विशुद्ध आत्मद्रव्य ही अध्यात्म है।
२. विशद्ध पर्यायार्थिकनय के अनुसार बहिरात्मदशा को नष्ट करके आत्मत्वरूप में अनुगत जीवद्रव्य में परमात्मभाव का आविर्भाव अध्यात्म कहलाता है।
३. अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय का अभिप्राय यह है कि कर्ममल के कारण प्राप्त भवाभिनंदी की दशा से सहज रूप से निवृत्त होकर अपुनबंधक आदि अवस्था को प्राप्त और स्वरूप में अनुगत-ऐसा विशुद्ध हो रहा आत्मद्रव्य ही अध्यात्म है।
४. अशुद्ध पर्यायार्थिकनय के अनुसार उत्कृष्ट संक्लेश से उत्पन्न भोगी अवस्था को नष्ट करके आत्मत्वरूप से अनुगत आत्मद्रव्य
में योगीदशा की अभिव्यक्ति अध्यात्म है।२८ चरणकरणानुयोग की दृष्टि में अध्यात्म :
चरणकरणानुयोग चारित्र के मूल गुण एवं उत्तरगुण पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है, अतः चरणकरणानुयोग की दृष्टि से अध्यात्म का अर्थ हैचारित्राचार और चारित्र के मूल गुण तथा उत्तरगुण को केन्द्र में रखकर आत्मा, अध्यात्म आदि पदार्थों का निरूपण करना।
___ चरणकरणाणुयोग की परिधि में रहकर शुद्ध एवं अशुद्ध-ऐसे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के अभिप्राय से अध्यात्म का चार प्रकार से विवेचन कर सकते हैं।
चतुर्थेऽपि गुणस्थाने शुश्रुषाधा क्रियोचिना अप्राप्तस्वर्णभूषाणां रजताभरणं यथा - अध्यात्मसार उ. यशोविजयजी
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