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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ६७
पंचाचार का पालन - कर्मकारक इन्द्रिय, अर्थात् उपकरण - करणकारक शास्त्रवचन - अपादानकारक
उपाश्रयादि - अधिकरणकारक यह लोक प्रचलित व्यावहारिक अध्यात्म है। अध्यात्म का सीधा तथा सरल भावार्थ सत्यबोलना, न्याय तथा नीतिपूर्वक आचरण करना, परोपकार करना, जीवदया का पालन करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, क्षमा रखना, सरलता रखना, लोभ नहीं करना, प्रतिज्ञा का पालन करना, गंभीर रहना गुणग्राही होना आदि है। यह सब व्यवहार अध्यात्म है।
पुज्यता की वृत्ति इन्हीं गुणों पर आश्रित है, परंतु इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि आत्मदृष्टि का प्रकाश ही धार्मिक आचरण का रहस्य है। साध्य को भूल जाएं और साधनों को ही साध्य समझ लें, तो कभी मंजिल प्राप्त नहीं होगी। वन्दन, पूजन, तप, जप, सभी के उपरांत भी आत्मा को ही भूल जाएं, अर्थात् मूल साध्य को ही भूल जाएं तो यह ऐसी स्थिति होगी जैसे बाराती को तो भोजन कराना किन्तु वर को पूरी तरह से ही भूल जाना।
अध्यात्म तत्त्वालोक में कहा गया है- "ज्ञान, भक्ति, तपश्चर्या और क्रिया का मुख्य उद्देश्य एक ही है कि चित्त की समाधि द्वारा कर्म का लेप दूर करके आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रकट करना।"२७ द्रव्यानुयोग - चरणकरणानुयोग की दृष्टि में अध्यात्म :
उत्पत्ति, नाश, स्थिरता आदि को परस्पर अनुविद्ध मानकर पदार्थ का निरूपण करने वाला दृष्टिकोण द्रव्यार्थिक दृष्टि है, इसमें गुण पर्याय को गौण करके द्रव्य को प्रमुखता देते हैं। इसे द्रव्यार्थिकनय भी कहा जाता है। द्रव्य को गौण करके गुण तथा पर्याय का प्रतिपादन करने वाला दृष्टिकोण पर्यायार्थिकनय कहलाता है।
ज्ञानस्य भक्तेस्तपसः क्रियायाः प्रयोजनं खल्विदमेक मेव चेतः समाधौ सति कर्मलेपविशोधनादात्मगुणप्रकाशः ।।३।। - अध्यात्म तत्त्वालोक -न्यायविजयजी
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