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६६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
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निश्चयनय के अनुसार आत्मद्रव्य में भी छः कारक की यह घटना घटित हो सकती है। एक स्तवन में कवि ने लिखा है कि "कारक षट्क थया तुझ के आतम तत्त्व मा धारक गुण समुदाय सयल एकत्व मां"। निश्चयनय के अनुसार :
१. ज्ञान करने वाली स्वयं की आत्मा-कर्ता २. जिसको प्राप्त करना वह आत्मा-कर्म ३. स्वयं की आत्मा को आत्मा के द्वारा जानना-करण
जानने का हेतु क्या-आत्मा के लिए (विद्वत्ता आदि के लिए नहीं) -संप्रदान आत्मा को कहाँ से जानना- स्वयं की आत्मा में से ही जानना, शास्त्र में से नहीं, बीज में से ही वृक्ष उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं, इस प्रकार अंतरात्मा की खोज करने से उसमें से ही परमात्मस्वरूप प्रकट होता है, अपादान. आत्मा को कहाँ रहकर ढूंढना-मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या जंगल में नहीं, बल्कि स्वात्मनिष्ठ बनकर ही उसे प्राप्त कर सकते हैं,
जान सकते हैं,-अधिकरण. इस प्रकार एक ही आत्मद्रव्य में षट्कारक की घटना होती है, ऐसी आत्मदशा आठवीं परादृष्टि में होती है, यह निश्चय अध्यात्म की बात हुई।
व्यवहार अध्यात्म में भी आत्मा के शद्ध स्वरूप की प्राप्ति का उददेश्य तो होना ही चाहिए। साध्य को लक्ष्य में नहीं रखकर धनुर्धर के बाण फेंकने की चेष्टा जिस प्रकार निष्फल होती है, वैसे ही साध्य को स्थिर किए बिना की गई सभी क्रियाएँ निरर्थक होती है; इसलिए शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट करने का, उसे प्रकाश में लाने का जो लक्ष्य है, उसे ध्यान रखना आवश्यक है। आत्मा को लक्ष्य बनाकर मन-वचन-काययोग के द्वारा जो सद्धर्म का आचरण किया जाता है, वह व्यवहारनय अध्यात्म है। पंचाचारा की प्रवृत्ति व्यवहार अध्यात्म और उत्पन्न होने वाले आत्म-परिणाम निश्चय अध्यात्म हैं।
चूँकि व्यवहारनय पराश्रित होता है, इसलिए व्यवहारनय के आधार पर आत्मा कर्ता कारक और संप्रदान कारक है।
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