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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ६५ निश्चयअध्यात्म तथा व्यवहारअध्यात्म का स्वरूप : व्यवहार और निश्चय का झगड़ा बहुत पुराना है। भगवान् महावीर ने वस्तु के दोनों रूपों का समर्थन किया है और अपनी दृष्टि से दोनों को यथार्थ बताया है। इस लोक में जिस वस्तु के लिए जैसा व्यवहार होता है, अर्थात् लोक में जो वस्तु जिस प्रकार से प्रसिद्ध हो उसके आधार पर वस्तु का प्रतिपादन व्यवहारनय करता है। जैसे कौए में पाँचों वर्ण रहने पर भी लोक में कौआ काला है-ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए व्यवहारनय यही स्वीकारता है कि 'कौवा काला है।' निश्चयनय तात्त्विक अर्थ को स्वीकारता है। इससे पदार्थ के सूक्ष्म रूप का ज्ञान होता है। निश्चयनय के अनुसार कौआ केवल काला ही नहीं है, कौए का शरीर बादरस्कन्धरूप होने से यहाँ पाँचों ही वर्ण वाले पुद्गलों से बना हुआ है, इसलिए निश्चयनय तो कौआ पाँच वर्ण वाला है- ऐसा ही मानता है। व्यवहारिकदृष्टि और नैश्चयिकदृष्टि में यही अन्तर है कि व्यावहारिकदृष्टि इन्द्रियाश्रित है, अतः स्थूल है, जबकि नैश्चयिकदृष्टि इन्द्रियातीत है, अतः सूक्ष्म है। एक दृष्टि से पदार्थ के स्थूल रूप का ज्ञान होता है और दूसरी से पदार्थ के सूक्ष्म रूप का, दोनों दृष्टियां सम्यक हैं। दोनो यथार्थता को ग्रहण करती हैं. फिर भी जहाँ निश्चयनय स्वयं के आश्रित होती है, वही व्यवहारनय पराश्रित होती है। निश्चयनय की दृष्टि में अध्यात्म : चूँकि निश्चयनय स्वाश्रित होता है, इसलिए इसके अनुसार ऐसे विशुद्ध स्वयं की आत्मा में ही रमण करना अध्यात्म कहलाता है। 'ध्यानस्तव नामक ग्रंथ में निश्चयनय का विषय कर्ता-कर्म आदि की अभिन्नता और व्यवहारनय का विषय उनकी परस्पर भिन्नता है। इस बात का अनुसरण करते हुए हम कह सकते हैं कि- आत्मा, आत्मा के द्वारा आत्मा के लिए आत्मा में से आत्मा में रहकर आत्मा को प्राप्त करे, वह अध्यात्म कहलाता है। इसका एक व्यावहारिक उदाहरण है, जैसे रसोईघर में बालिका भूख को मिटाने के लिए डिब्बे में से हाथ द्वारा मिठाई लेकर खाती है। यहाँ एक ही क्रिया के छ: कारक हैं और सभी भिन्न-भिन्न हैं। लड़की-कर्ता, मिठाई-कर्म, हाथ-कारण, भूख को मिटाना-संप्रदान, डिब्बे में से निकालना अपादान और रसोईघर-अधिकरण। अभिन्नकतृकर्मादिगोचरो निश्चयोऽथवा व्यवहारः पुनर्देव निर्दिष्टस्ताद्विलक्षणः ।।७१।। -ध्यानस्तवः -भास्करनन्दि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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