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६४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
में बताया है कि- व्रतसम्पन्न व्यक्ति का मैत्री आदि भावप्रधान आगमनानुसारी तत्त्वचिंतन अध्यात्म है। यह शब्दनय के अनुसार की गई अध्यात्म की व्याख्या है। समभिरूढ़नय की दृष्टि में अध्यात्म :
इस नय के अनुसार अध्यात्मभावना, ध्यान, योग आदि शब्दों के भेद से अर्थ का भेद रहा हुआ है, फिर भी जिस साधक पुरुष ने शुद्ध आत्मदशा को केन्द्र में रखकर पंचाचार का पालन किया है, तथा उसकी स्वानुभूति उस साधक पुरुष के पास जब तक रहेगी, तब तक स्वाध्याय, शासनप्रभावना, विहार, भिक्षाटन तथा निद्रा आदि अवस्थाओं में भी उस साधक पुरुष में अनासक्ति -असंगअनुष्ठान का जो भाव रहेगा, वही समभिरूढ़नय के मतानुसार अध्यात्म कहा
जाएगा।
एवंभूतनय के दर्पण में अध्यात्म का स्वरूप :
इस नय की दृष्टि में जब आत्मा को लक्ष्य करके पंचाचार का सम्यक्रूपेण परिपालन होता है, तब ही वहाँ अध्यात्म होता है, अन्यत्र नहीं ! क्योंकि आत्मकेन्द्रित पंचाचार के पालनरूप, अध्यात्म शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ यही है, इसलिए जीव में जब तक आत्मकेन्द्रित पंचाचार का सम्यक् परिपालन नहीं हो, तब तक उसमें अध्यात्म का स्वीकार नहीं हो सकता है । ३५
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अध्यात्मवैशारदी-मुनि यशोविजयजी
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