________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/६३
व्यवहारनय की दृष्टि में अध्यात्म :
"बाह्य व्यवहार से पुष्ट मैत्रयादिभावना से युक्त निर्मल चित्त अध्यात्म है।३७ व्यवहारनय के मत से भव्यजीव के सद्धर्म के आचरण से चित्त हुई निर्मल वृत्ति अध्यात्म है, चित्त परंतु अभव्य जीवों के द्वारा से किया हुआ सद्धर्म का आचरण चित्त शुद्धि का हेतु नही होता है, इसलिए वह अध्यात्म नहीं है। केवल अपुनर्बंधक सम्यग्दृष्टि जीव के द्वारा किया हुआ सद्धर्म का आचरण ही अध्यात्म है।"
व्यवहारनय का आश्रय लेकर योगसार ग्रंथ में भी कहा गया है"सदाचार ही साक्षात् धर्म है, सदाचार ही अक्षयनिधि है, सदाचार ही दृढ़ धैर्य है, सदाचार ही श्रेष्ठ यश है।" ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से अध्यात्म का परिचय :
क्षणिक वर्तमानकालीन पर्याय को स्वीकारने के कारण इस नय की दृष्टि में मैत्रादि से युक्त निर्मल वर्तमानकालीन स्वकीय चित्तक्षण (विज्ञानक्षण) ही अध्यात्म है। ऋजुसूत्रनय वर्तमानकालीन स्वकीय भावअध्यात्म को छोड़कर, अन्य भूतकालीन अध्यात्म, भविष्यकालीन अध्यात्म नाम अध्यात्म, स्थापना अध्यात्म और द्रव्य अध्यात्म को स्वीकार नहीं करता है।
__ बौद्ध विद्वानों ने भी ब्रह्मविहार से वासित चित्तक्षण को अध्यात्म कहा है। बौद्ध विद्वानों ने मैत्री आदि चार भावनाओं को ब्रह्म विहार के रूप में स्वीकार किया है। शब्दनय की दृष्टि में अध्यात्म :
शब्दनय योग आदि पर्याय शब्द से वाच्य आत्मकेन्द्रित क्रियावंचक योग, शास्त्रयोग, वचन-अनुष्ठान-स्थैर्ययम-सिद्धि विनियोग आशय-आगम के अनुसार तत्त्वचिंतन-ध्यान, विधि-जयणा से मुक्त पंचाचार का पालन आदि को अध्यात्म रूप में स्वीकार करता है। इसका कारण यह है कि शास्त्रयोग आदि अध्यात्मपद से वाच्य ऐसी अर्थक्रिया करने के लिए समर्थ है। आचार्य हरिभद्र ने योगबिंदु ग्रन्थ
रुढ्यर्थनिपुणास्त्वाहुश्चितं मैत्र्यादिवासितम् अध्यात्म निर्मलं बाह्यव्यवहारोपबृंहितम् ।।३।। - अध्यात्मोपनिषद् उ. यशोविजयजी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org