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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ६१ हैं; इसलिए इनके अर्थ भी अलग-अलग मानना चाहिए, कारण कि पर्यायवाची शब्दों के भी प्रवृत्ति निमित्त अलग होते हैं। उदाहरणार्थ घट, कलश, कुम्भ, शब्द पर्यायवाची माने जाते हैं, परंतु समभिरूढ़नय' की अपेक्षा से प्रत्येक शब्द का अर्थ अलग-अलग है। एवंभूतनय इस नय के अनुसार शब्द की प्रवृत्ति में निमित्तभूत धात्वार्थ या क्रिया से युक्त अर्थ ही उस शब्द का वाच्य बनता है। इस नय के मतानुसार केवल क्रिया को ही शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त मानते हैं। उदाहरण के लिए एक लेखक उसी समय लेखक कहा जा सकता है, जब वह लेखन कार्य करता हो । एक डाक्टर तभी डाक्टर कहा जा सकता है, जब वह रोगी का इलाज कर रहा हो। 'गच्छति इति गो', इस नय के अनुसार गाय जब चलती है तभी उसके लिये गौ शब्द प्रयोग कर सकते है। संक्षेप में एवंभूतनय अर्थक्रियाविशिष्ट जाति जहाँ हो, वहीं पर उस शब्द का प्रयोग मानता है । अध्यात्म संबंधी नय-व्यवस्था : सप्त नयों के सामान्य स्वरूप के बाद अब सप्त नयों की दृष्टि में अध्यात्म के स्वरूप की विवेचना इस प्रकार से है 9. नैगमनय की दृष्टि से अध्यात्म :- नैगमनय के मतानुसार 'देव गुरु आदि के पूजनरूप पूर्वसेवा अध्यात्म है। योगबिन्दु में पूर्वसेवा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि गुरुदेव पूजन, सदाचार, तप एवं मुक्ति से अद्वेष मोक्ष का विरोध नहीं करना- इनको शास्त्रमर्मज्ञों ने पूर्वसेवा कहा है । ३० पूर्व में विवचेन कर दिया गया है कि जो कार्य किया जाने वाला है, उसका संकल्प मात्र नैगमनय है; उसी प्रकार अध्यात्म के विषय में पूर्वमेवा शास्त्रलेखन आदि, योगबीज का ग्रहण, योग, इच्छायोग आदि, इच्छाराम आदि, ३० पूर्वसेवा तु तन्त्रज्ञैर्गुरुदेवादिपूजनम | सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेह प्रकीर्तिता । । १०६ ।। - योगबिन्दु - हरिभद्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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