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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ५६ संकल्प के आधार पर निश्चित होता है। औपचारिक कथनों का अर्थ निश्चय भी नैगमनय के आधार पर होता है, जैसे प्रत्येक भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को श्रीकृष्णजन्माष्टमी कहना । यहाँ वर्तमान में भूतकालीन घटना का उपचार है । सामान्य और विशेष स्वरूप से अर्थ को स्वीकारने वाला नैगमनय होता है | संग्रहनय भाषा के क्षेत्र में अनेक बार हमारे कथन व्यष्टि को गौण कर समष्टि के आधार पर होते हैं। जैन आचार्यों के अनुसार जब विशेष या भेदों की उपेक्षा करके मात्र सामान्य लक्षणों या अभेद के आधार पर जब कोई कथन किया जाता है, तो वह संग्रहनय का कथन माना जाता है । २६ संग्रहनय का वचन संगृहित या पिंडित अर्थ का प्रतिपादक है। जैसे- 'भारतीय गरीब हैं' यह कथन व्यक्तियों पर लागू न होकर सामान्यरूप से भारतीय जनसमाज का वाचक होता है । संग्रहनय हमें यह संकेत करता है कि समष्टिगत कथनों के तात्पर्य को समष्टि के सन्दर्भ में ही समझने का प्रयत्न करना चाहिए और उसके आधार पर उस समष्टि के प्रत्येक सदस्य के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए। व्यवहारनय २७ व्यवहारनय को हम उपयोगितावादी दृष्टि कह सकते हैं। लौकिक अभिप्राय समान उपचार बहुल, विस्तृत अर्थ विषयक व्यवहारनय है। केवल सामान्य के बोध से, या कथन से हमारा व्यवहार नहीं चल सकता है। व्यवहार के लिए हमेशा भेदबुद्धि का आश्रय लेना पड़ता है। वैसे जैन आचार्यों ने इसे व्यक्तिप्रधान दृष्टिकोण भी कहा है। जो अध्यवसाय विशेष लोगों के व्यवहार में उपायभूत है, वह व्यवहारनय कहलाता है । २८ २६ २७ २५ सामान्य मात्रग्राही परामर्शः संग्रह - जैनतर्कभाषा नयपरिच्छेद पृ. ६० लौकिक सम उपचारप्रायो विस्तृतार्थोव्यवहार - तत्त्वार्थभाष्य १ / ३५ नयरहस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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