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________________ ५८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री वक्ता के आशय एवं कथन के तात्कालिक संदर्भ को सम्यक् प्रकार से समझा जा सकता है। नयों की अवधारणा को लेकर जैनाचार्यों ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि वक्ता का अभिप्राय, अथवा वक्ता की अभिव्यक्ति शैली ही नय है, तो फिर नयों के कितने प्रकार होंगे? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है कि जितनी कथन करने की शैलियाँ हो सकती है, उतने ही नयवाद हो सकते हैं। फिर भी मोटे रूप से जैनदर्शन में सप्तनयों की अवधारणा मिलती है। सप्तनयों में नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र - इन चार नयों का अर्थ, पदार्थ से संबंधित नय तथा शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीन नयों को शब्दनय, अर्थात् कथन से संबंधित नय कहा गया है। २४ नैगमनय २५ इन सप्त नयों में सर्वप्रथम नैगमनय आता है । नैगमनय मात्र वक्ता के संकल्प को ग्रहण करता है । नैगमनय की दृष्टि से किसी कथन के अर्थ का निश्चय उस संकल्प, अथवा साध्य के आधार पर किया जाता है, जिससे वह कथन किया गया है। नैगमनय संबंधी प्रकथनों में वक्ता की दृष्टि सम्पादित की जाने वाली क्रिया के अन्तिम साध्य की ओर होती है। वह कर्म के तात्कालिक पक्ष की ओर ध्यान नहीं देकर कर्म के प्रयोजन की ओर ध्यान देती है। प्राचीन आचार्यों ने नैगमनय का उदाहरण देते हुए बताया है कि जब कोई व्यक्ति स्तम्भ के लिए किसी जंगल से लकड़ी लेने जाता है और उससे पूछा जाता है कि भाई तुम किसलिए जंगल जा रहे हो तो वह कहता है मैं स्तम्भ लेने जा रहा हूँ । वस्तुतः वह जंगल से स्तम्भ नहीं अपितु लकड़ी ही लाता है। लेकिन उसका संकल्प या प्रयोजन स्तम्भ बनाना ही है; अतः वह अपने प्रयोजन को सामने रखकर ही कथन करता है। हमारी व्यावहारिक भाषा में ऐसे अनेक कथन होते हैं, जब हम अपने भावी संकल्प के आधार पर ही वर्तमान व्यवहार का प्रतिपादन करते हैं। जैसे डॉक्टरी में पढ़ने वाले विद्यार्थी को उसके भावी लक्ष्य की दृष्टि से डॉक्टर कहा जाता है। नैगमनय के कथनों का वाच्यार्थ भविष्यकालीन साध्य या २३ जावइया वयणपहा । तावइया होंति नयवाया - सन्मतितर्क ३/४७ सिद्धविनिश्चय -७२ चत्वारोऽर्थाश्रयाः शेषास्त्रयं शब्दतः संकल्पमात्रग्राही नैगम - सर्वार्थसिद्धि १/३३ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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