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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ५७
प्रमोदभावना से गुणों की प्राप्ति होती है और अनुमोदना करते समय अगर वह अपने में ही है, तो चित्त अधिक स्वच्छ तथा निर्मल बनता है ।
गुण
परदोषोक्षेपणमुपेक्षा
असाध्य कक्षा के दोष वाले जीवों पर करुणायुक्त उपेक्षादृष्टि रखना माध्यस्थभावना है। जब उपदेश देने पर भी सामने वाला व्यक्ति महापाप के उदय से रास्ते पर नहीं आता है, तो फिर उसके प्रति उपेक्षा रखना ही अधिक उचित है। हितोपदेश नहीं सुनने वाले पर भी द्वेष नहीं करना चाहिए । उपाध्याय यशोविजयजी ने द्वेष की सज्झाय में कहा है कि गुणवान के प्रति आदरभाव और निर्गुणी के प्रति समचित रखना चाहिए । माध्यस्थभावना सांसारिक प्राणियों को विश्रांति लेने का स्थान है। यह भावनाओं के आधार पर अध्यात्म का स्वरूप है अब विभिन्न नयों के आधार पर अध्यात्म का स्वरूप विवेचित है।
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नैगमादि सप्तनयों की अपेक्षा से अध्यात्म का स्वरूप
यहाँ विभिन्न नयों की अपेक्षा से अध्यात्म के स्वरूप के विवेचन करने से पहले नयों के स्वरूप को समझ लेना आवश्यक है। वक्ता के अभिप्राय को समझने के लिए जैन आचार्यों ने नय और निक्षेप ऐसे दो सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने नय का सामान्य लक्षण बताते हुए कहा है कि २१ “प्रमाण द्वारा जानी हुई अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक देश को ग्रहण करने वाला तथा अन्य अंशो का निषेध नही करने वाला अध्यवसाय विशेष 'नय' कहलाता है। नय की परिभाषा करते हुए जैन आचार्यों ने कहा है कि ' वक्ता का अभिप्राय' ही नय कहा जाता है। २२ नयसिद्धांत हमें वह पद्धति बताता है जिसके आधार पर
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२१
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राग धरीजे जीहां गुण लहीये, निर्गुण ऊपर समचित्त रहीये - सज्झाय उपाध्याय यशोविजयजी
नय परिच्छेद - जैन तर्कभाषा (उ. यशोविजयजी)
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वक्तुरभिप्रायः नयः -स्याद्वादमंजरी पृ. २४३ नयोज्ञातुरभिप्रायः - लघीयस्त्रयी श्लोक - ५५
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