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५६/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
'दूसरे प्राणियों के हित की, या कल्याण की चिंता करना', यह मैत्रीभावना कहलाती है। “परोपकाराय सतां विभूतयः", सज्जन व्यक्ति को जो मानसिक, शारीरिक या आर्थिक संपत्ति प्राप्त होती है, वह हमेशा दूसरों पर उपकार करने के लिए ही होती है।
___ कोई भी प्राणी पाप नहीं करे, कोई भी जीव दुःखी नहीं हो और सारा जगत् बन्धन से मुक्त हो, मुक्ति को प्राप्त करे, इस प्रकार की बुद्धि मैत्रीभावना कहलाती है
u क्षमा मांगना और क्षमा करना, यह जैनशासन की शुद्ध नीति है।८
अतः अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी मैत्रीभावना है।
साथ ही पर दुःखनाशक परिणति, अर्थात् दूसरों के दुःख को दूर करने की इच्छा करुणा कहलाती है। करुणाभावना से युक्त व्यक्तियों की दृष्टि बहुत विशाल होती है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु', की भावना से वे अपने ही समान सभी प्राणियों को देखते हैं। दूसरों का दुःख देखकर उनका मन द्रवित हो जाता है और उनके दुःखों को किस प्रकार दूर करना- यही विचार उनको बार-बार आता है। प्रायः इसी कारुण्यभावना को भाते हुए तीर्थंकर जैसे सर्वश्रेष्ठ नाम कर्म का बंध होता है।
“करुणा का दोहरा लाभ है। वह करने वाले और जिस पर करुणा की जाती है - दोनों को सुख प्रदान करती है। करुणा में दोनों को ही लाभ होता है। यह स्थिति बहुत विचारने योग्य है। "पर सुख तुष्टिर्मुदिता", दूसरों के सुख में आनन्द, अर्थात् गुणवानों के गुणों और उनके आचरण को देखकर हृदय में जो हर्ष उत्पन्न होता है, उसे प्रमोदभावना कहते हैं। प्रमोदभावना भाते समय अपूर्व आनंद प्राप्त होता है। गुणों को प्राप्त करने का यह सीधा उपाय है कि महान् पुरुषों ने जिन गुणों को प्राप्त कर लिया हो उनकी हृदय से अनुमोदना करना।
१७. परहितचिन्तामैत्री, परदुःखविनाशिनी करुणां। __ परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ।।१२।। -(अ) अध्यात्म कल्पद्रम (ब) षोडशक
४/१५ (स) योगसूत्र १/३३ मा कार्षीत्कोपि पापानि, माच भूत्कोऽपि दुःखितः । मुच्यता जगदव्येषा मतिमैत्री निगद्यते ।।१३।। - अध्यात्म कल्पद्रुम Merchant of Venice - नाटक -शेक्सपियर
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