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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ५५
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आचारांग सूत्र में भी अध्यात्मपद का अर्थ प्रिय और अप्रिय का समभावपूर्वक संवेदन लिया है। जैसे स्वयं को प्रिय और अप्रिय के अनुभव में सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वैसे ही दूसरे जीवों को भी सुख - दुःख की अनुभूति होती है।
अध्यात्म शब्द अधि+आत्म से बना है।" अधि उपसर्ग भी विशिष्टता का सूचक है, जो आत्मा की विशिष्टता है वही अध्यात्म है। चूँकि आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है, अतः ज्ञाता - दृष्टा भाव की विशिष्टता ही अध्यात्म है।
उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्म का स्वरूप संक्षेप में बताते हुए कहा है" कि जिन साधकों की आत्माओं के ऊपर से मोह का अधिकार चला गया है, ऐसा साधक, आत्मा को लक्ष्य करके शुद्ध क्रिया का आचरण करता है, उसे अध्यात्म कहते हैं।
इस प्रकार परमात्मास्वरूप प्रकट करने का लक्ष्य, पंचाचार का सम्यक् परिपालन और मोह के आधिपत्य से रहित चेतना - इन तीनों का समन्वय अध्यात्म कहलाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए की गई कोई भी क्रिया बिना अध्यात्म चेतना के संभव नहीं है।
अध्यात्मवाद का उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा गृहीत सामान्य अर्थ
उपाध्याय यशोविजयजी ने अध्यात्म का रूढ़ अर्थ इस प्रकार बताया है कि सधर्म के आचरण से बलवान् बना हुआ तथा मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ भावना से युक्त निर्मल चित्त ही अध्यात्म है। १६
१३ जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणई, जे बहिया जाणइ से अज्झत्थं जाणइ आचारांग
सूत्र ७/१४७
अध्यात्म और विज्ञान गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या
प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्मं जगुर्जिनाः । । २ । । - अध्यात्मसार - अध्यात्मस्वरूप अधिकार - उपाध्याय यशोविजयजी
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डॉ. सागरमल जी जैन अभिनन्दन ग्रंथ
रुढ्यर्थनिपुणास्त्वाहुश्चित्तं मैत्र्यादिवासितम्। अध्यात्मं निर्मलं बाह्यव्यवहारोपबृंहितम् ।।३।। - अ. उपनिषद् उपाध्याय यशोविजयजी । अध्यात्मं निर्मलं बाह्यव्यवहारोपबृंहितम् ।।३ ।। - अ. उपनिषद् उपाध्याय यशोविजयजी
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