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५४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
अध्यात्मवाद का व्युत्पत्तिपरक अर्थ
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'आत्मानम् अधिकृत्य यद्वर्तते तद् अध्यात्मम् । आत्मा को लक्ष्य करके जो भी क्रिया की जाती है, वह अध्यात्म है। उपाध्याय यशोविजयजी भी अध्यात्म शब्द का योगार्थ ( शब्द और प्रकृति के संबंध से जो अर्थ प्राप्त होता है, उसे योगार्थ कहते हैं। ) ” बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को लक्ष्य करके जो पंचाचार का सम्यक् रूप से पालन किया जाता है, उसे अध्यात्म कहते हैं। दूसरे शब्दो में विशुद्ध अनंत गुणों के स्वामी परमात्मातुल्य स्वयं की आत्मा को लक्ष्य करके ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का पालन किया जाता है, वह अध्यात्म कहलाता है।
अध्यात्म के विषय में बहिरात्मा का अधिकार नहीं है । उसी प्रकार अंतरात्मा को उद्देश्य करके भी अध्यात्म की प्रवृत्ति नहीं होती है, किंतु स्वयं में रहे हुए परमात्म स्वरूप को प्रकट करने के लिए अंतरात्मा के द्वारा जो पंचाचार का सम्यक रूप से परिपालन किया जाता है वही अध्यात्म कहलाता है।
आनंदघनजी ने भी आत्मस्वरूप को साधने की क्रिया को अध्यात्म कहा
है।
विभिन्न संदर्भों में अध्यात्म के अनेक अर्थ होते हैं । अन्तरात्मा में होने वाली प्रवृत्ति अध्यात्म है।" मन से परे जो चैतन्य सत्ता है, वह अध्यात्म है।
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शरीर, वाणी और मन की भिन्नता होने पर भी उनमें चेतनागुण की जो सदृशता है वही अध्यात्म है।
आत्म-संवेदना अध्यात्म है। वीतराग चेतना अध्यात्म है।
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१२.
अभिधान राजेन्द्र कोष -भाग - १ (पृष्ठ - २५७ )
अध्यात्मोपनिषद - आत्मानमधिकृत्य स्याद् यः पंचाचारचारिमा शब्दयोगार्थ निपुणास्तदध्यात्मं प्रचक्षते ॥ २ ॥
निजस्वरूप जे किरिया साधे तेह अध्यात्म कहीये रे
जे किरिया करी उगति साधे ते न अध्यात्म कहीये रे - आनंदधन जी ( श्रेयांस नाथ
भगवान का स्तवन )
आचारांग भाष्यम् - पृष्ठ -७५ - आचार्य महाप्रज्ञ
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