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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/५३
द्वितीय अध्याय अध्यात्मवाद का अर्थ एवं स्वरूप
बिना प्राण का शरीर जैसे मुर्दा कहलाता है, ठीक उसी प्रकार बिना अध्यात्म के साधना निष्प्राण है। अध्यात्म का अर्थ आत्मिकबल, आत्मस्वरूप का विकास, या आत्मोन्नति का अभ्यास होता है। आत्मा के स्व-स्वरूप की अनुभूति करना अध्यात्म है। 'अप्पा सो परमप्पा', अर्थात आत्मा ही परमात्मा है। चाहे चींटी हो या हाथी, वनस्पति हो या मानव, सभी की आत्मा में परमात्मा समान रूप से रहा हुआ है, किन्तु कर्मों के आवरण से वह आवरित है। कर्मों की भिन्नता के कारण जगत के प्राणियों में भिन्नता होती है। कर्म के आवरण जब तक नष्ट नहीं होते हैं, तब तक आत्मा परतंत्र है, अविद्या से मोहित है, संसार में परिभ्रमण करने वाली और दुःखी है। इस परतंत्रता या दुःख को दूर तब ही कर सकते हैं, जब कर्मों के आवरण को हटाने का प्रयास किया जाए।
जिस मार्ग के द्वारा आत्मा कर्मों के भार से हल्की होती है, कर्म क्षीण होते हैं, वह मार्ग ही अध्यात्म कहलाता है। जब से मनुष्य सत्य बोलना या सदाचरण करना सीखता है, तब से अध्यात्म की शुरूआत होती है। अध्यात्म का शिखर तो बहुत ऊँचा है। उसकी तरफ दृष्टि करते हुए कितने ही व्यक्ति हतोत्साहित हो जाते हैं और अध्यात्म का साधना-मार्ग बहुत कठिन समझने लगते हैं। यह बात जरूर है कि सीधे ऊपर की सीढ़ी या मन्जिल पर नहीं पहुँचा जा सकता है, किंतु क्रमशः प्रयास करने से आगे बढ़ सकते है, और अंत में मंजिल पर पहुँच सकते हैं। उत्तम गुणों का संचय करते रहने से अध्यात्म में आगे बढ़ने का रास्ता स्वयं मिल जाता है और फिर ऐसी आत्मशक्ति जाग्रत होती है कि उसके द्वारा अध्यात्म के दुर्गम क्षेत्र में पहुँचने का सामर्थ्य प्रकट होता है।
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