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________________ ५२ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री लिखी है। दर्शन के अतिरिक्त योग साहित्य पर भी उनकी कृतियों एवं टीकाओं की उपलब्धता यही सिद्ध करती है कि वे अध्यात्मरसिक योग साधक थे। अध्यात्म सार, अध्यात्मोपनिषद् और ज्ञानसार - इन तीनों ग्रंथों में उन्होंने शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग - ऐसे चार योगों की चर्चा विस्तार से की है, किन्तु उनकी इस योग सम्बन्धी चर्चा का विशिष्ट पक्ष यह है कि वे इन चारों योगों को परस्पर विरोधी न मानकर एक-दूसरे के पूरक मानते हैं। इस प्रकार अपनी कृतियों में ये एक सम्यक् समीक्षक की दृष्टि प्रस्तुत करते हैं । यशोविजयजी के साहित्य का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि उनकी रचनाएँ मात्र तार्किकता और धार्मिक विधि विधान प्रस्तुत नहीं करतीं अपितु वे आत्मानुभूति की अतल गहराइयों में जाकर स्वानुभूत सत्य को प्रकट करती हैं। यह ठीक है कि स्वानुभूत सत्य को भाषा की सीमा में बांधकर प्रस्तुत कर पाना अत्यंत कठिन है, फिर भी उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानसार, अध्यात्मसार और अध्यात्मोपनिषद् में इन आत्मानुभूतियों को प्रकट करने का प्रयास किया है। न केवल उन्होंने इन स्वानुभूतियों को प्रकट किया है, अपितु ध्यानसाधना का एक ऐसा मार्ग भी प्रस्तुत किया, जिसके सहारे चलकर व्यक्ति उसे स्वयं ही अनुभूत कर सकता है। वस्तुतः उपाध्याय यशोविजयजी एक तार्किक दार्शनिक बाद में हैं। सबसे पहले वे आत्मरसिक साधक हैं और वे इस तथ्य को बहुत स्पष्ट रूप से जानते हैं और मानते हैं कि अनुभूतियों को भाषा के सहारे सम्यक् रूप से प्रकट नहीं किया जा सकता है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने भाषा रहस्य जैसे ग्रंथ की रचना कर भाषा की सीमितता और सापेक्षता को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उनकी कृतियों के आधार पर यदि हम कोई विश्लेषण करते हैं, तो यह स्पष्ट लगता है कि अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में यशोविजयजी एक तार्किक दार्शनिक के रूप में सामने आते हैं, किन्तु अध्ययन और अनुभूति की गहराइयों में जाकर उन्हें दार्शनिक तार्किकता नीरस लगने लगती है। वे योग और ध्यान साधना की ओर अभिमुख हुए प्रतीत होते हैं और अंत में अध्यात्मरस में निमग्न हो जाते हैं। इस प्रकार यशोविजयजी की साहित्य - साधना और उनका जीवनदर्शन दोनों ही इस सत्य को स्थापित करते हैं कि वे मात्र तार्किक, दार्शनिक और भावुक कवि न होकर आध्यात्मिक अनुभूतियों के माध्यम से सत्य को साक्षात्कार करने वाले महान् साधक थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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