________________
४८ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
किया है। इस रास के आधार पर बाद में दिगंबर कवि भोजराजा ने संस्कृत भाषा में द्रव्यानुयोग, तर्कणा नाम का विवरण लिखा हैं। यही इसकी महत्ता दर्शाने के लिए काफी है।
III.
श्रीपाल रास की रचना में सहयोग
इन दो समर्थ रासकृतियों के बाद विनयविजयजीकृत श्रीपाल राजा के रास को पूरा करने में यशोविजयजी का योगदान है। वि.सं. १७३८ रांदेर में चातुर्मास के दौरान संघ के आग्रह से विनयविजयजी ने इस रास को लिखना शुरू किया। पाँचवी ढाल की बीस कड़ियों तक की रचना हुई। आगे लिखने की उनकी बहुत इच्छा थी, परंतु उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। कृति अधूरी रहने का उनके मन में विषाद था । यशोविजयजी उनके मन के भाव को समझ गए और तुरंत उन्होंने विनयविजयजी से कहा कि “आपका रास जहाँ से अधूरा है, वहाँ से मैं उसे अवश्य पूरा करूंगा।" इनके इस वचन से विनयविजयजी के मन को असीम आनन्दानुभूति हुई। थोड़े ही समय में विनयविजयजी कालधर्म को प्राप्त हुए। उसके बाद यशोविजयजी ने अंतिम खण्ड लिखकर श्रीपाल रास को पूरा किया। मध्यकालीन जैन साहित्य में दो समर्थ कवियों द्वारा एक ही रचना प्रकार से लिखी यह एकमात्र कृति सुप्रसिद्ध है। तत्त्वविचार से युक्त इनकी काव्यमय वाणी इसमें अलग ही रूप धारण करती है।
स्तवन - सवासौ गाथा का स्तवन
यह स्तवन सीमंधर स्वामी का है। आरंभ में कवि ने सीमंधर स्वामी से विनती की है तथा कुगुरु के अनिष्ट आचरण पर प्रहार किया है। इसमें आत्मद्रव्य का शुद्ध स्वरूप, सत्य ज्ञान दशा का महत्त्व, निश्चय और व्यवहार की आवश्यकता को स्पष्ट किया है। द्रव्य भाव स्तव का निरूपण करके जिनपूजा और सम्यग् भक्ति का रहस्य समझाकर स्तवन पूरा किया है।
v.
डेढ़ सौ गाथा का स्तवन
यह कुमति मदगालन वीर स्तुतिरूप हुंडी का स्तवन है। इस स्तवन में जिनप्रतिमा की पूजा का निषेध करने वाले के मत का परिहार
IV.
Jain Education International
-
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org