SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४/साची प्रीतिदर्शनाश्री २. योगविशिका वृत्ति - विंशतिविंशिका प्रकरण ग्रंथ का योगविषयक एक प्रकरण योगविंशिका है। 'गागर में सागर' उक्ति को सार्थक करता हुआ यह प्रकरण है। महोपाध्याय लघुहरिभद्र यशोविजयजी ने इसमें गागर में छुपे हुए सागर को व्यक्त किया है। इन्होंने अगर इस वृत्ति की रचना नहीं की होती तो ये रहस्य प्रकाश में आते या नहीं, यह शंकास्पद है। इसमें अनेक विषय हैं, जैसे- योग का लक्षण, क्रिया की आवश्यकता, पाँच आशय, स्थानादि पाँच योग, योग के ८० भेद, चार आलंबन, कर्म के दो तथा तीन प्रकार, विषादि पाँच अनुष्ठान, तीर्थ किसे कहते हैं? धर्माचार्य का कर्त्तव्य क्या है? ध्यान के दो स्वरूप, निश्चय व्यवहार में आत्मस्वरूप, अयोग-योग के भिन्न-भिन्न नाम आदि। ३. स्याद्वादकल्पलता - हरिभद्रसूरि द्वारा रचित शास्त्रवार्तासमुच्चय पर उपाध्याय यशोविजयजी ने स्यावाद कल्पलता नामक टीका की रचना करके इस ग्रंथ की शोभा में चार चाँद लगा दिए हैं। मूल ग्रंथ का विवरण करते-करते उपाध्यायजी ने स्वतंत्र रूप से अपनी व्याख्या में प्राचीन एवं नव्यन्याय में प्रसिद्ध अनेक वादस्थलों का अवतरण किया है। वादस्थलों की विस्तृत चर्चा से यह व्याख्याग्रन्थ भी एक स्वतंत्र ग्रन्थ जैसा बन गया है। मूल शास्त्रवार्तासमुच्चय ग्रंथ को ११ विभागों में वर्गीकृत करके प्रत्येक विभाग में भिन्न-भिन्न दर्शनों के अनेक सिद्धान्तों का विस्तार से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर अनेक नवीन युक्तियों से उनके उत्तरपक्ष को उपस्थित किया गया है। यह अतीव बोधप्रद एवं आनंददायक है। प्रथम स्तबक में भूतचतुष्टयात्मवादी नास्तिक मत का खण्डन है। दूसरे में काल, स्वभाव, नियति और कर्म- इन चारों की परस्पर निरपेक्ष कारणता के सिद्धान्त का खण्डन है। तीसरे में न्यायवैशेषिक के ईश्वर कर्तव्य का और सांख्याभिमत प्रकृति पुरुषवाद का खण्डन है। चतुर्थ में बौद्धसम्प्रदाय के सौत्रान्तिकसम्मत क्षणिकत्व में बाधक स्मरणाद्यनुपत्ति दिखाकर क्षणिक बाह्यर्थवाद का खण्डन है। पंचम में योगाचार अभिमत क्षणिक विज्ञानवाद का खण्डन है। छठे में क्षणिकत्व साधक हेतुओं का खण्डन, निराकरण किया गया है। सातवें में जैनमत के स्याद्वाद सिद्धान्त का सुंदर निरूपण किया गया है। आठवें में वेदान्ती अभिमत अद्वैतवाद का खंडन विस्तार से बताया है नवें में जैनागमों के अनुसार मोक्षमार्ग की मीमांसा की गई है। दसवें में सर्वज्ञ के अस्तित्त्व का समर्थन किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy