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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ४३
पूजा षोडशक
इसमें न्यायार्जित धन द्वारा विधिपूर्वक परमात्मा की पूजा करने की बात कही गई है। इसमें पंचोपचार, अष्टोपचार आदि पूजा के प्रकार बताए गए हैं।
सदनुष्ठान षोडशक
इसमें प्रीति, भक्ति, वचन और असंग ये चार प्रकार के सदनुष्ठान बताए गए हैं।
ग्यारहवें षोडशक में श्रुतज्ञान का लिंग शुश्रूषा श्रुतचिंता, भावना, ज्ञान का स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला गया है।
बारहवें षोडशक में दीक्षा का अधिकारी, नामन्यास यही मुख्य दीक्षा है। साथ ही नामन्यास का उद्देश्य आदि भी बताए गए हैं।
तेरहवें षोडशक में गुरुविनय आदि साधु क्रियाओं का विवेचन है। चौदहवें षोडशक में सालंबन और निरालंबन ध्यानयोगी की चर्चा है। पन्द्रहवें षोडशक में ध्येय का स्वरूप बताया गया है।
सोलहवें षोडशक में मोक्षपरिणामी आत्मा तथा कर्म का विचार करते हुए अद्वैतवाद आदि की समीक्षा की गई है।
टीका में उपाध्यायजी ने कितने ही स्थानों पर भाषा-संक्षेप के ताले खोलकर अचर्चित पदार्थ बाहर निकाले है और कितने ही स्थानों पर मूल पंक्ति के आधार पर स्वकीय मीमांसा भी की है; जैसे बाल, मध्यम और बुध जनों के तीन-तीन लक्षण, कुशील का स्वरूप, देशकालानुरूप देशना प्रदान की समीक्षा, समारसापत्ति का विस्तृत निरूपण, जनप्रियत्व गुण का सुंदर मूल्यांकन, दृष्टिसंमोह दोष की संम्यक समझ, काल, स्वतंत्र द्रव्य है या नहीं इसकी विचारणा, श्रमणों की प्राचीन वसति व्यवस्था की विचारणा, ऊँकार और मंत्र का स्वरूप, द्रव्यपूजा में निरवद्यता की स्थापना, अयोग्य दीक्षा को वसन्तराजा की जो उपमा दी गई उसका सुंदर स्पष्टीकरण, ध्यान स्वरूप की मीमांसा, योगभ्रष्टत्व का स्वरूप संविग्नपाक्षिक व्यवस्था का रहस्य, स्वाभाविक सुखस्वरूप का प्रकाशन तथा भव्यत्व मीमांसा ज्ञान क्रियानय मत का विचार आदि ।
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