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________________ ४० / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री अनेकान्त व्यवस्था इस ग्रंथ में वस्तु के अनेकान्त स्वरूप का तथा नैगम आदि सात नयों का सतर्क प्रतिपादन किया गया है। १४. १३. अस्पृशद्गतिवाद - इस वाद में तिर्यग्लोक से लोकान्त तक के मध्यवर्ती आकाश प्रदेशों के स्पर्श बिना मुक्तात्मा के गमन का उपपादन किया गया है। १५. आत्मख्याति १६. में है। १७. १८. १६. २१. सप्तभंगीनयप्रदीप इस ग्रंथ में संक्षिप्त में सप्तभंगी तथा सात नय का विवेचन किया है। निशाभुक्तिप्रकरण इस लघुकाय ग्रंथ में, रात्रिभोजन स्वरूपतः अधर्म है- इसका उपपादन किया गया है। २०. २२. - इस ग्रंथ में आत्मा के विभु तथा अणु परिमाण का निराकरण किया गया है। आर्षभीय चरित्र ऋषभदेव के पुत्र भरतचक्रवर्ती के चरित्र का काव्यात्मक निरूपण इस ग्रंथ - तिन्वयोक्ति तिड़न्तपदो के शब्दबोध का स्पष्टीकरण इस ग्रंथ में किया गया है। Jain Education International - परमज्योति पंचविंशिका इसमें परमात्मा की स्तुति की गई है। परमात्मपंचविंशिका इसमें भी परमात्मा की स्तुति की गई है। प्रतिमास्थापनन्याय इसमें प्रतिमा के पूज्यत्व की स्थापना की गई है। - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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