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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४३६ वस्तु अनंतधर्मात्मक है। उसे अनेक दृष्टियों से जाना जा सकता है और कहा जा सकता है। अतः उसके संबंध में कोई भी निर्णय निरपेक्ष और पूर्ण नहीं हो सकता है। कोई भी कथन किसी दृष्टिकोण या सन्दर्भ के आधार पर सत्य है किंतु अन्य दृष्टिकोण से कहे गये उसके विरोधी कथन को असत्य कहकर नकारने का अधिकार नहीं है। इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्टतया समझ सकते हैं जैसे एक स्त्री है वह किसी की बेटी है तो किसी की बहू है किसी की पत्नि है तो किसी की माँ है, किसी की बुआ, दादी, चाची है तो किसी की मासी, नानी है। इस प्रकार अलग-अलग व्यक्तियों की दृष्टि में उस एक ही स्त्री के अनेक रूप हैं। अभिन्नता और भिन्नता दोनों ही बातें उस स्त्री में है। कोई यह कहकर संघर्ष करें कि यह स्त्री सिर्फ माँ ही है और कुछ नहीं तो इस प्रकार का संघर्ष व्यर्थ तथा संघर्ष करने वाला मूर्ख है। वस्तुतः मनुष्य का ज्ञान सीमित है। अपूर्ण है और अपूर्ण के द्वारा पूर्ण को जानने का प्रयास भी आंशिक सत्य के ज्ञान तक ही ले जा सकता है। इसी आंशिक सत्य को जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तो संघर्ष उत्पन्न होते हैं। हमारे आंशिक दृष्टिकोण पर आधारित सापेक्ष ज्ञान को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से विरोधी मन्तव्यों को असत्य कहकर नकार दें। उ. यशोविजयजी कहते हैं कि “प्रत्येक नय अपने दृष्टि बिन्दु से सत्य होता है, परन्तु जब वे एक दूसरे से दृष्टिबिन्दु का खंडन करते हैं तब गलत होते हैं।"८०५ सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति तर्क में इसी बात को प्रतिपादित करते हुए कहा है कि "सभी नय अपने-अपने वक्तव्य में सत्य है परन्तु दूसरे नय के वक्तव्य का खण्डन करने में झूठे है। अनेकान्त सिद्धान्त का ज्ञाता पुरुष उन नयों का 'यह सत्य है और यह असत्य है।' ऐसा विभाग नहीं करता।"८०६ इस प्रकार परस्पर विरोधी विचार है वे अनेकान्त की विशाल एवं उदार दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते हैं। उ. यशोविजयजी लिखते हैं कि "जिसने अनेकान्तवाद को अपने हृदय में स्थापित किया है वह व्यक्ति किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है। वह सम्पूर्ण दृष्टिकोणों को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है, जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्रों को।"८०० एक सच्चे अनेकान्तवादी की ८०५. नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः।।३।।-ज्ञानसार-१६/३, उ. यशोविजयजी ८०६. नियनियवयणिज्जसच्चा सम्बनया परवियालणे मोहे। ते पुण ण दिसमओ विभयई सब्वे व अलिएवा। -सन्मतितर्क- २८, सिद्धसेनदिवाकर ८०७. यस्यसर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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