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________________ ४३८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री लोगों को प्रभावित करें। यदि धर्म का प्रचार यह समझकर किया जाय कि सभी धर्मों का मूल तत्त्व, सारभूत तत्त्व तो एक ही है, उनमें भीतरी समानता है तो सारे साम्प्रदायिक झगड़े समाप्त हो जाये। यदि हम धर्म की मूलभूत शिक्षाओं को देखें तो मूसा की दस आज्ञायें, ईसा के पर्वत पर के उपदेश, बुद्ध के पंचशील, महावीर के पंच महाव्रत और पतंजलि के पंचयम एक दूसरे से अधिक भिन्न नहीं है। इन मूलभूत शिक्षाओं का पालन करके कोई भी व्यक्ति महानता की ओर अग्रसर हो सकता है। उ. यशोविजयजी के समकालीन आध्यात्मिक संत आनंदघनजी ने सभी आदर्शपुरुषों की समानता बताते हुए कहा है कि - "राम कहो रहिमान कहो, कोउ काण्ह, कहो महादेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा सकल ब्रह्म स्वयमेव री।। भाजन भेद कहावत नाना एक मृतिका का रुप री। तापे खंड कल्पनारोपित आप अखण्ड अरुपरी।।" राम-रहीम, कृष्ण करीम, महादेव और पार्श्वनाथ सभी एक ही सत्य के विभिन्न रुप हैं। जैसे एक ही मिट्टी के बने विभिन्न पात्र अलग-अलग नामों से पुकारे जाते हैं, किन्तु उनकी मिट्टी मूलतः एक ही है। वस्तुतः आराध्य के नामों की यह भिन्नता वास्तविक नहीं है। यह भिन्नता भाषागत है। अतः इस आधार पर विवाद और संघर्ष निरर्थक है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने लोकतत्त्व निर्णय में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “जिसके सभी दोष नष्ट हो चुके हैं और जिसमें सभी गुण विद्यमान है वह फिर ब्रह्म हो, महादेव हो, विष्णु हो या फिर जिन्हें हम प्रणाम करते हैं।"८०३ वाद-प्रतिवाद को उ. यशोविजयजी निरर्थक बताते हुए कहते हैं कि “जो शास्त्रज्ञान या धर्म राग द्वेष से मुक्त होने के लिए हैं उसी शास्त्रज्ञान या धर्म को लेकर वाद-विवाद करे संघर्ष उत्पन्न करे तो वह व्यक्ति गति करने में घाणी के बैल समान होता है उसकी प्रगति नहीं होती वह तत्त्वनिर्णय को प्राप्त नहीं कर सकता है।"८०४ __इस तरह हम देखते हैं कि संघर्ष में कोई सार नहीं है साम्प्रदायिक कलह को दूर करने के लिए धार्मिक सहिष्णुता का होना आवश्यक है और धार्मिक सहिष्णुता के विकास का आधार है अनेकान्तवाद। जैनाचार्यों की मान्यता है कि ८०३. यस्य अनिखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। लोकतत्त्वनिर्णय - १४० ८०४. वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति तिलपीलकवद्गतौ ।।४।। ज्ञानसार, ५/४, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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