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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ४०६ विलासी ठाट-बाट और बड़े लोगों का अंधानुकरण से बचते हुए 'सादा जीवन उच्च विचार' की नीति अपनाई जाए तो तनाव मुक्त और संतुष्ट जीवन जी सकते हैं। सद्भावना और उदात्त दृष्टि रखते हुए अधिकार की तुलना में कर्तव्य को महत्त्व दिया जाए साथ ही हर परिस्थिति को स्वीकार करने की मनःस्थिति बना ली जाए तो भी तनाव मुक्त रहा जा सकता है। सुख और दुःख वास्तव में तो हमारी कल्पना की ही उपज है। विचारों को मोड़ना सीख जाए, हमारे सोचने का दृष्टिकोण बदल जाए तो तनाव उत्पन्न करें ऐसी कोई परिस्थिति ही नहीं होती है। स्नेह सद्भाव और आत्मीयता इन तत्त्वों के होने पर व्यक्ति गरीब तथा अभावग्रस्त होने पर भी बहुत शांति और संतोष का अनुभव करता हैं। दूसरे की भूलों और दुर्गुणों पर दृष्टि नहीं डालें और पर द्रव्य को लोष्टवत् समझे तो व्यक्ति तनाव रहित हो सकता है। क्योंकि दूसरों के ऐश्वर्य और दूसरों के दुर्गुणों पर दृष्टि रखने से व्यक्ति का पतन होता है। तनाव मुक्ति का एक ओर उपाय उ. यशोविजयजी ने बताया है 'ज्ञाता दृष्टा भाव का विकास' - व्यक्ति छोटा हो और उसका व्यवहार अनुकूल न हो तो भी व्यक्ति तनावग्रसित हो जाता है। आफिसर आया, कर्मचारी ने हाथ नहीं जोड़े, किसी ने सम्मान नहीं दिया, किसी ने कहा हुआ कार्य नहीं किया तो व्यक्ति तनाव से भर जाता है ऐसी अनेक घटनाए दिनभर में घटित होती है अगर उन्हें मूल्य न दे तो भी तनाव में कमी हो जाती हैं। उ. यशोविजयजी ने उसे ज्ञानी कहा, जो संसार की घटनाओं से प्रभावित नहीं होता है। घटना को जानना एक बात है भोगना दूसरी बात । 'ज्ञानी जानाति, अज्ञानी भुक्ते, ज्ञानी जानता है और अज्ञानी भोगता है। जो घटना को जानता है परंतु घटना के साथ-साथ बहता नहीं है वह कभी तनाव से ग्रसीत नहीं होता है। गीता में भी कहा गया है कि जो सुख-दुख में समभाव रखता है उससे प्रभावित नहीं होता है उस धीर व्यक्ति को इन्द्रियों के सुख दुख आदि विषय व्याकुल नहीं करते है, जो स्वाभाविक उपलब्धियों में सन्तुष्ट है, राग द्वेष एवं ईर्ष्या से रहीत निर्द्वन्द एंव सिद्धि - असिद्धि ( सफलता-असफलता ) में समभाव से युक्त है वह जीवन के सामान्य व्यापारों को करते हुए भी बन्धन में ७७१ ७७१. संसारे निवसन् स्वार्थसज्जः कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोकः ज्ञानसिद्धो न लिप्यते । ।१ ।। -निर्लेपाष्टक ११ / १, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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