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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ४०३
भौतिक विकास के लिए काम और अर्थ जरूरी है। लेकिन भौतिक विकास के साथ आने वाली विकृतियों को दूर करने के लिए अध्यात्मवादी दृष्टिकोण से युक्त धर्म और मोक्ष भी आवश्यक है । भोग जीवन की अनिवार्यता है तो त्याग उसका अलंकरण है। पोजिटिव और निगेटिव दोनों का योग होता है, तो ही बिजली जलती है। चमक पैदा होती है। भोग के साथ-साथ त्याग का होना भी जरुरी है। इसलिए उ. यशोविजयजी इन्द्रिय विषयों के गुलाम बने हुए जीव को चेतावनी देते हुए ज्ञानसार में कहते हैं कि “एक - एक इन्द्रिय की परवशता से जीवात्मा की कैसी करुण दुर्दशा होती है, इस पर विचार करें। पतंगा दीपक की ज्योति के आसपास खूब नाचता है। चक्षु इन्द्रिय द्वारा रूप के प्रति आसक्त बना पतंगा ज्योति का आलिंगन करने जाता है और जलकर भस्म हो जाता है । सुगन्ध का दीवाना भ्रमर जो लकड़ी को भी छेद सकता है किंतु कोमल कमल के पुष्प में बंद होकर अपनी जान गवां देता है । रसनेन्द्रिय के वश होकर मछली मछुआरे के जाल में फंस जाती है। स्पर्शेन्द्रिय के सुख में भान भूला गजेन्द्र और मधुर स्वर को श्रवण करने के शौकीन हिरणों को भी मौत का शिकार होना पड़ता है। एक-एक इन्द्रिय के परवश बने जीवों की ऐसी दुर्दशा होती है तो आज का मानव तो पाँचों इन्द्रियों के भोग में आकण्ठ डूबा हुआ है। इसलिए आज के मानव की यह करुण दुर्दशा हुई है कि वह सुख और शांति का अनुभव नहीं कर पाता है । ७६२
जैनागम उपासंगदशांगसूत्र में श्रावक के बारह व्रत बताये गये हैं उसमें सातवाँ व्रत भोगोपभोग परिमाण व्रत आता है अर्थात् भोग और उपभोग की सामग्री का परिणाम निश्चित करना अर्थात् अपनी आवश्यकताओं की सीमा का निर्धारण करना। इस वैज्ञानिक युग में आज यह नियम अत्यन्त ही प्रासंगिक है। क्योंकि आसक्ति और स्वार्थ से प्रेरित होकर लोगों ने त्याग के पक्ष को गौण कर दिया है। इसी प्रकार अहं ने प्रदर्शन के पक्ष को मुख्य कर दिया है और दर्शन गौण हो गया है। जिस मकान में सौ आदमी रह सके उतना बड़ा भव्य मकान बनायेंगे पर उसमें रहने वाले होंगे दो चार सदस्य । जीवन की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो कम आय वाला भी कर सकता है किंतु असीम इच्छाओं की पूर्ति अरबपति भी कभी नहीं कर सकता हैं। वास्तव में जिस समाज
७६२. पतग्ड़भृगमीनेभ सारंगयान्ति दुर्दशाम् ।
एकैकेन्द्रियदोषाच्चेद् दुष्टैस्तैः किं न पंचभिः ।। ७ ।। - इन्द्रियजयाष्टक - ७/७, ज्ञानसार, उ. यशोविजयजी
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