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४०४/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री
में हम रहते हैं, उसके औसत जीवन स्तर से बहुत अधिक ऊँचा, बहुत अधिक खर्चीला जीवन स्तर बनाना निश्चित रूप से अनैतिक है। इसमें समाज के प्रति अर्थात् दूसरे लोगों के प्रति उपेक्षा का निष्ठुरतापूर्ण मनोभाव छिपा हुआ है। इसकी प्रतिक्रियाएँ बहुत दुःखद होती है। चोर-डाकू, लूटेरे, हत्यारे, दुराचारी लोगों की उत्पत्ति होती हैं। अमीरों के आकर्षण ठाटबाट और भोग उपभोग के साधन देखकर कमजोर व्यक्ति भी विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए उन साधनों की प्राप्ति करने के लिए गलत मार्ग अपनाते है। भोग के प्रति आकर्षण समाज में विक्षोभ पैदा करता है और अनेक दुष्प्रवृत्तियों की उत्पत्ति का कारण बनता है।
पूरे विश्व में भोगवादी दृष्टिकोण अपनी चरमसीमा पर पहुँच गया है। अतः अब अतिआवश्यक है कि लोगों के मन में आध्यात्मिक चेतना को जागृत कर संयम की भावना उत्पन्न की जाए। भोगोपभोग परिमाण-व्रत का प्रचार प्रसार किया जाए। साथ ही पदार्थ की अनित्यता या भौतिक सुखों की क्षणिकता का बोध कराकर जीवन के शाश्वत मूल्यों के प्रति आस्था स्थापित करना भी आवश्यक है। यह सच है कि पदार्थ के बिना जीवन की यात्रा नहीं चलती है। खाना-पीना, मकान, कपड़ा आदि सभी पदार्थ पर ही निर्भर है किन्तु जिसमें आध्यात्मिक चेतना का जागरण हो चुका है वह पदार्थ को पदार्थ मानता है, उपयोगी और आवश्यक मानता है किन्तु उसे आत्मीय नहीं मानता है उसके प्रति आसक्त नहीं होता हैं। उ. यशोविजयजी ने कहा है कि “अहं और मम" मैं और 'मेरा' में पूरा जगत अंधा बना हुआ है। उ. यशोविजयजी ने हृदय परिवर्तन का सूत्र दिया 'अहं नहीं ममत्व नहीं।०५६ इन दो सत्रों का विकास किया जाए और व्यक्ति का शाश्वत जीवन मूल्यों के प्रति आकर्षण बढ़ाया जाए। जिस पदार्थ का संयोग हुआ है उसका वियोग निश्चित है, जब मृत्यु आती है, तब सब पदार्थ यही रह जाते हैं। कुछ भी साथ नहीं जाता है। यहाँ तक कि यह शरीर भी यहीं जलकर भस्म हो जाता है। मनोविज्ञान में इड, 'ईगो' और 'सुपर ईगो' पर बहुत चिन्तन हुआ है। ईगो (चेतना) को इड ईगो (वासनात्मक चेतना) और सुपर ईगो (आदर्शात्मक चेतना) में समन्वय करना होगा। उ. यशोविजयजी ने हृदय परिवर्तन को दुसरा सूत्र दिया है- “भेद विज्ञान" का “मैं पदार्थ नहीं हूँ, पदार्थ से भिन्न हूँ।"७६७
७६३. अहं ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्यजगदान्ध्यकृत् ।
अयमेव हि नंपूर्वः प्रतिमन्त्रोपि मोहजित्।।91Fमोहत्यागाष्टक ४/१, ज्ञानसार, उ.
यशोविजयजी ७६४. शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम।
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